Saturday, April 14, 2018

उत्सव पैसे और मजा



कौशलेंद्र प्रपन्न
हम सब अपनी जिं़दगी के एकरसता को तोड़ना चाहते हैं। सब के अपने अपने तरीके होते हैं। कोई दोस्तों के साथ टहल आता हैं। कोई फिल्म,नाटक देखकर मन को बहला लेता है। खेल तो ख़ैर धीरे धीरे कम ही होते जा रहे हैं। यदि कोई खेलते दिखाई दे जाए तो सुनना पड़ता है यार यह भी कोई उम्र है खेलने की। अब तो मैच्योर हो जाओ। और किसी और के कहने पर हम खेलना छोड़ देते हैं। हमारे जीवन से कुछ ख़ास चीजें बड़ी ही तेजी से ग़ायब हो रही हैं। खेल, मनोरंजन, मिलजोल की चाह आदि। हम जैसे जैसे नागर समाज का हिस्सा होते जा रहे हैं वैसे वैसे अकेला भी होते जा रहे हैं। हम अपनी शामें घर में टीवी के सामने गुजारते हैं। या फिर सप्ताहांत में किसी मॉल में टहलते, बिन ज़रूरतों की शॉपिंग करते गुजार देते हैं। शामें और सप्ताहांत हमारा लोगों, रिश्तेदारों से मिलने में नहीं अकेले गुज़रा करता है। पैसे की तो चिंता ही नहीं। हम बड़ी सहजता से एक बैठक में पांच सौ हज़ार या दो हज़ार खर्च कर देते हैं।
उत्सव हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है। बस माध्यम और स्वरूप अलग अलग रहे हैं। समय प्रमाण है कि हमें अपने जीवन की मनोभाविक, समाजोसांस्कृतिक एकरूपता को तोड़ने के लिए विभिन्न अवसरां पर विशेष आयोजन किया करते थे। यह एक बहाना था स्व और परिजनों से मिलने का। लेकिन जैसे जैसे हम नागर समाज का हिस्सा होते गए हैं वैसे वैसे मॉल या घूमने में आनंद तलाशा करते हैं। आपने भी अनुभव किया होगा कि आज हम दिखावे में ज़्यादा जीया करते हैं। जिन चहजों के बगैर भी काम चल सकता है लेकिन हम सामानों से घर भरना सीख चुके हैं। जैसे जैसे हमने घर भरा है वैसे वैसे हम अंदर से ख़ाली होते जा रहे हैं।
किसी के भी जीवन में बच्चे की किलकारी बहुत रोमांचक अनुभव से कम नहीं हेता। हर किसी को इस पल का इंतज़ार रहा करता है। और यदि ऐसे नहीं हुआ तो उनका जीवन एकरेखीय एकांगी सा हो जाता है। ऐसा कहते हैं। लड़कियों का सामाजिकरण ऐसा ही होता है कि यदि वे मातृत्व सुख से वंचित हैं तो उनका जीवन बेकार और ठूंठ है। जबकि इस अवधारणा से उबरने की आवश्यकता है। ज़रूरत तो इस बात की भी है कि हमें बच्चों के न होने की स्थिति में ग़मज़द होने की बजाए जीवन में उत्सव और आनंद के अन्य रास्तों के राही बनना चाहिए।

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