Wednesday, April 18, 2018

अभिमन्यू हो गया उदास



कौशलेंद्र प्रपन्न
आप सब की यादाश्त बहुत तेज है। अभिमन्यू की पूरी जन्मकुंडली जानते हैं। कब पैदा हुआ। किसका बेटा था। क्यांकर मारा गया आदि आदि। वह कोई और अभिमन्यू था। जो गर्भ में ही ज्ञान और समझ पा चुका था। आपको तो यह भी याद होगा कि उसे चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता नहीं मिल सका तो उसके पीछे क्या वजह थी। शायद यही वज़ह है कि अभिमन्यू की मृत्यू होती है। बल्कि आज के शब्दों में कहें तो हत्या की गई।
आपको क्या लगता है वह सिर्फ और सिर्फ एक ही अभिमन्यू रहा जिसकी हत्या की गई? ज़रा विचार कीजिए। यदि आपके पास सोशल मीडिया से वक़्त मिल जाए तो। यदि समय हो तो विचार कीजिएगा। हमारा अभिमन्यू आज भी जूझ रहा है। कई सारे कौरवों की फौज उसे रेजदिन घेर कर मार रही हैं। वह निहत्था असहाय मरने को मजबूर है।
कश्मीर में क्या हुआ? बिहार में क्या हुआ? उत्तर प्रदेश में ही देख लीजिए सिर्फ भूगोल अलग हैं। जगहें अलग हैं। वारदात तो एक है। मारा तो अभिमन्यू ही गया। वह लड़की थी। जो ख़ुद को कौरवों से बचा न सकी। बचना तो वह भी चाहती थी। उसे भी अपनी जिं़दगी प्यारी थी। वह भी हौवानों से बचकर अपने घर पाप के पास जाना तो चाही होगी। मां की याद तो उसे भी आई होगी। अभिमन्यू की मां की तरह उसकी मां सोई नहीं होगी बल्कि इंतज़ार कर रही होगी कि उसकी बुधिया वापस आएंगी।
वह बुधिया लौट कर नहीं आई। वह आज की अभिमन्यू बन गई। बनना उसकी चाहत या चुनाव नहीं था बल्कि मजबूरी थी। न चाहते हुए भी उसे शिकार होना ही था। लेकिन कौरवों को कोई भी रोक न सका। आप ही देखें कश्मीर की घटना से पहले दिल्ली दहल गई थी। उस घटना की थरथराहट वैश्विक स्तर पर महसूस की गई। लेकिन अभी भी कौरवां की सेना यूं ही अभिमन्यू को शिकार बना रहे हैं। कभी चाकलेट के प्रलोभन पर कभी घूमाने के नाम पर किन्तु गुमराह तो हमारी बेटियां ही हो रही हैं।
हमने बच्चों की सुरक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा प्रदान करने की घोषणा वैश्विक स्तर पर 1989 में यूएन में की थी। लेकिन आज भी हमारे बच्चे न तो सुरक्षित हैं और न ही स्वस्थ्य। हां हमने इन तीस सालों और कुछ किया हो या नहीं लेकिन विकास ज़रूर किया। फ्लाईओवर से शहर को पार कर दिया। पूरे शहर को सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया। जब शहर सोशल मीडिया पर लाइक और शेयर करेगा तो भावनाएं भी भी शेयर होंगी। भावनाओं का क्या है यह तो समय और व्यक्ति के अनुसार बदला करती हैं। हमारी नज़र में तो अस्सी साला महिला और आठ साला बच्ची दोनां ही बस हवस, सेक्स और यूज की वस्तु भर हैं।
काश! हम सोशल मीडिया पर भावनाओं को उडेलने की बजाए हक़ीकत में कुछ सोच और कर पाते। हालांकि आप कहेंगे मैं क्या कर रहा हूं। मैं भी तो उसी मंच का प्रयोग का कर रहा हूं। लेकिन दोनों में एक बुनियादी अंतर है। वह यह कि यहां लाइक और कमेंट की उम्मीद नहीं है। बल्कि आपसे महज इतनी सी गुजारिश है कि यदि आज भी हम ठान लें कि कम से कम मैं अपनी आंखों के सामने किसी भी अभिमन्यू की हत्या नहीं होने दूंगा। कोशिश करूंगा कि अपनी नागरीय जिम्मदारी निभाउंगा। तो काफी हद तक हम अपने अभिमन्यू को बचा सकें। वरना अभिमन्यू उदास सा सोचता रहेगा कि काश मैं बाहर ही नहीं आता। 

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