Thursday, March 1, 2018

मसान चारों ओर जहां चाहों खेलो होरी...


कौशलेंद्र प्रपन्न
शंकर को मसान की तलाश थी। शंकर थे तब उन्हें मसान ढूंढ़ना पड़ा होगा। अब शहर और गांव, महानगर चारां ओर मसा नही मसान है। कभी वक़्त था जब श्मशान शहर के बाहर हुआ करते थे। गांव या फिर कस्बे के सीमांत पर जला करती थी लाशें। अब तो शहर सिकुड़ते चले गए और मसान
शहर के अंदर ही आ गया।
इससे पहले की लोग धुत्त हो जाए कुछ समझदार लोगों से बात कर ली जाए। क्यों कल का असर आज से ही दिखने लगा है। एक दिन पहले ही बधाइयां भी आने लगी हैं। गोया मरना तो है ही क्यों न आज ही कफ़न ख़रीद कर रख लें। क्या पता कल को कफ़न के भाव बढ़ जाएं। लकड़ी और घी भी ख़रीदकर रख लेने में कोई हर्ज नहीं।
समझदार किस्म के लोग प्लान कर के लाइफ में चला करते हैं। ऐेसे लोग जीवन में सक्सेस होते हैं। चलिए हम भी थोड़े समझदार हो जाएं और मौत के सामना आज ही ख़रीद कर रख लें। होली में मसान क्यां जाया जाए? क्यों शंकर को मसान के लिए दर ब दर भटकना पड़े। उन्हें क्यों न शहर के भीतर ही मसान मुहैया करा दी जाए। सर्विस एट योर डोर।
अब तो मसान कहां नहीं है। कौन धुत्त नहीं है। क्या अस्पताल क्या स्कूल, क्या बैंक सब जगह मसान ही तो है। अस्पताल में ऑपरेशन उन अंगों का हो जाता है जो खराब नहीं है। स्कूल में बच्चे पढ़ने की बजाए मरने मारने जाते हैं। अब बताईए कौन धुत्त नहीं है। बैंक वाले अलग ही रो रहे हैं। बैकर को बीम बेचने कर अपना टॉरगेट पूरा करना होता है। टीचर को भी तो टारगेट मिलता है इतना प्रतिशत आना ही चाहिए। सो जैसे तैसे कर कर बच्चों को कूटते हैं।
सड़कों पर कौन पी कर नहीं चलता। सब होश को घर पर छोड़कर आते हैं। जैसे ही गाड़ी में खरोच आ जाए तो मर्डर किया जाता है। जब गाड़ी व्यक्ति से ज़्यादा अहम हो जाए तो बताईए और धुत्त नहीं है।
होली तो होली हम रोज़ ही रंगों की नहीं बल्कि ख़ून की होली खेला करते हैं। अभी अभी ख़बर आई है कि होली में सड़क पर हुड़दंग मनाना खतरे से खाली नहीं। साहब कहां हुड़दंगई नहीं है। संसद क्या इससे महरूम हैं। वहां भी रोज़ ही भाषाओं में खेला करते हैं होली। होली इज्जतों की। होली बिलों की और न जाने कैसी कैसी होली हो रही है।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...