Thursday, March 29, 2018

च्ुप यूं क्यों रहती हो बोलो...


कौशलेंद्र प्रपन्न
यूं ही कहां कहां कैसे कैसे गहन कंदराओं, वन उपत्यकाओं, पहाड़ों के बीच से चुप चाप बहती हो। कभी इतनी वाचाल और शोख़ हो जाती हो कि समझ नहीं आता तुम वही हो जो कहीं तो एकदम ख़ामोश रहती हो तो कभी झूमने लगती हो। तुम जितनी शांत नज़र आती हो उतनी ही अंदर से बेचैन भी होती हो। जब तुम बेचैन होती हो तो गांव गांव के जल समाधि...
पूरा का पूरा का गांव रातों रात भूगोल से ग़ायब। टिहरी को ही लो अब वहां नामों निशान नहीं। लेकिन कभी तुम उस गांव की शान और पहचान हुआ करती थी। तुम्हीं तो हो कहीं के लिए जीवन रेखा बन जाती हो तो कहीं के लिए जीने मरने का सवाल। तुम्हें लेकर दो राज्यां और देशों के बीच फसाद होता रहा है। क्या चनाब, क्या झेलम और क्या व्यास इन सब को अकेले और शहर के बीच से गुजरते हुए देखना और उन्हें महसूसना बेहद दिलचस्प एहसास होता है। देखा तो सिन्धू नदी को भी है। उसके अकेलेपन को भी देखा। कैसे दो पहाड़ों के बीच ख़ामोशी से बहती रहती है।
एक नदी मेरे पास भी है। उसे अब तक तो ज़िंदा रखा है। मगर डरता हूं कहीं मेरी नदी खो न जाए। वैसे भी शहर और महानगरों में नदी हो या न हो कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता। नदी सूखे या गंधाए किसी की नींद नहीं टूटती। लेकिन हमारे हिस्से नदी नहीं बल्कि नद मिला। वह नद जो तथाकथित अभिशप्त है। देश के चार नदों में से एक नद मेरे शहर के हिस्से आया है। अब आप कहेंगे कौन सा नद मेरे हिस्से आया तो बता ही देता हूं सोनभद्र। यह निकलता तो अमरकंटक से है लेकिन हमारे शहर से गुजरता हुआ आगे निकल जाया करता है।
किसी भी शहर के पास नदी का होना कई बार लगता है एक ईश्वरीय या प्राकृतिक धाय का मिलना है। पर्व त्योहार में डूबकी लगाना हो तो नदी। कभी शहर से उदास हुए तो नदी का तट। कभी उल्लास के पलों की तटस्थ नदी। तो कभी जीवन ख़त्म करने में मां समान गोदी की तरह नदी हुआ करती है।

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