Wednesday, March 14, 2018

बच्चों के सपने उनके हैं तो संघर्ष भी...



कौशलेंद्र प्रपन्न
बच्चे सिर्फ परीक्षा के भय से भयभीत नहीं हैं बल्कि बच्चां पर अपने और और के सपनों को पूरा करने का भी भार होता है जिसे वे ढोते हैं। ढोने की पूरी कोशिश करते हैं। भला कौन अपने सपनों को पूरा होते नहीं देखना चाहेगा? किसी अच्छा नहीं लगेगा कि उसके देखे, पाले सपने साकार हो रहे हैं। लेकिन दिक्कत तब आती है जब हम दूसरों के सपनों में अपने सपने का एहसास करने लगते हैं। दूसरे के सपनों को अपना मान कर जीवन के लक्ष्य तय करने लगते हैं। जितने लोग हैं उतने ही सपने हैं। कई बार तो लगता है सड़क पर चलते हैं हम कितने ही सपनों से रू ब रू होते हैं। कितने ही सपने टकराकर आगे निकल जाते हैं। हम कितनी बेरूख़ी से दूसरों के सपनों को सुनकर मुसकुरा के चल दिए... चल देते हैं। बजाए कि उसके सपने को साकार करने में यदि अपनी भिमका निभाई होती तो शायद उसके सपने पूरे हो जाते। बल्कि हम एक कुंठा में जी रहे होते हैं। हम सोचते हैं मेरे सपने अधूरे रह गए तो भला उसके सपने क्योंकर पूरे हों। कांफ्लिक्ट यहीं पैदा होती है। हम पोजेटिव पोजेटिव कांफ्लिक्ट को जीने और सुलझाने की बजाए निगेटिव सेच और अवधारणा की ओर मुड़ने लगते हैं।
इन दिनों बच्चों पर चौतरफा दबाव है। न केवल अभिभावकों का बल्कि रिश्तेदारों, दोस्तों और स्कूली दबाव भी कम नहीं होते। कौन किस कोर्स को चुन रहा है? कहां कहां परीक्षा के फार्म भरे हैं? वहां नहीं हुआ तो क्या होगा? उस एक्जाम में पास नहीं हुआ तो सब हंसेंगे। दोस्त भी मजाक उड़ाएंगे। इतने पैसे लग गए कहां कहां नहीं कोचिंग में पैसे दिए आदि आदि। आर्थिक दबाव भी कम नहीं है। एक ओर परीक्षा दूसरी ओर परीक्षा के आगामी प्रभाव की चपेट में हमारे बच्चे जी रहे हैं।
इन्हें कैसे बचाया जाए इस ओर सोचने की बज़ाए हमारा पूरा ध्यान समाज में घटने वाले अन्य घटनाओं में दिलचस्पी लेता है। उससे अपने परिवार और घर पर असर तो पड़ेगा लेकिन आपकी औलाद जिस मनोदशा से गुजर रहा है। उससे न तो रिश्तेदारों को वास्ता होता है और न समाज के अन्य लोगों को। इसलिए पहले पहल हमें अपने घर के चराग को दुरुस्त करने की आवश्यकता है।
परीक्षा की चपेट में सपने इस तरह आते हैं कि परीक्षा में यदि पेपर अच्छे नहीं हुए या नहीं जा रहे हैं तो हम अपने सपनों और लक्ष्यों को ऑल्टर करने लग जाते हैं। और यहीं से दुश्चिंता, तनाव, अवसाद आदि घर करने लगते हैं। किसी की शुभकामनाओं में इतनी ताकत नहीं होती कि वो आपके पेपर कर दे। बल्कि वे शुभकामनाएं महज़ दिल को तसल्ली ज़रूर देती हैं। दरअसल सपने हमारे हैं तो उसकी पीड़ा और संघर्ष भी हमारे ही होंगे।हमें उसे भी स्वीकार करना होगा। यदि सपनों को ऑल्टर करना हो तो करने में हिचकिचाहट क्यों। क्योंकि जतो हंसने वाले हैं वो तो वैज्ञानिक पर भी हंसते हैं और सड़क चलते रहगीर पर भी। हमें अपने सपने को पाने के लिए कठोर भी होना होता है। कभी कभी अपने आप से तो कभी दूसरों से भी। इसे ग़लत भी नहीं कह सकते। क्यांकि प्रेमचंद ने कहा है ,‘‘सक्सेस हैज नंबर आफ फादर बट डिफिट इज ऑर्फन’’

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