Thursday, March 8, 2018


कौशलेंद्र प्रपन्न
कल एक फ्रैंड का फोन आया उसका दाखिला दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी में हो गया है। ख्ुशी हुई। दोस्त है आखिर। पीएचडी करेगी। विषय पूछने पर जो बताया तब निराशा हुई। निराशा को साझा भी किया। आज की तारीख में विश्वविद्यालयों में होने वालों शोधों पर कितना समय और पैसे खर्च होते हैं इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। कठिन तो यह भी नहीं है कि एक शोधकर्ता अपने जीवन का कितना अहम वक़्त शोध लिखने में लगाता है। उसके बदले उसे का़ग़ज के प्रमाण पत्र मिल जाते हैं। इसका और लाभ हो न हो समाज में दिखाने और नौकरी में थोड़ा और आगे जाने में मदद मिलती है।
यदि सम्मान की बात करें तो समाज में कोई ख़ास नहीं मिल पाता। डॉक्टर लिखने और बुलवाने में अच्छा तो लगता है। क्यों न लगे क्योंकि उसके लिए कम से कम पांच से छह साल तो छात्र खर्च करता ही है। उसके बाद क्या वह डॉ लिखने से भी चूके।
साहित्य शास्त्र कहता है कि किसी भी साहित्य की रचना के मकसद हुआ करती हैं। मसलन-अर्थ, प्रसिद्धी, समाज में सम्मान, भार्या प्रीति आदि आदि। सामान्यतौर पर साहित्य लेखन में और भी मकसदों को ध्यान में रखा जाता है। ठीक वैसे ही यदि पीएचडी के शोधों की बात करें तो इसमें भी मकसद तो होंगे ही। जैसे प्रसिद्धी, भार्या प्रीति, समाज में सम्मान आदि। लेकिन इससे एक कदम आगे बढ़कर समाज को क्या उस शोध से कोई मार्गदर्शन या बेहतर कार्ययोजना में मदद मिलती है? क्या शोध से समाज और देश को विकास करने में तर्कपूर्ण रणनीति मिल पाती है। सामान्यतः देखा यही जाता है कि आज की तारीख में शोध पुस्तकालयों और शोधार्थी की आलमारी में शोभा बढ़ाती हैं।
ख़ासकर भाषा, समाज विज्ञान, शिक्षा आदि क्षेत्र में हुए शोधों के शीर्षक शोध के मज़मून बता देते हैं। फलां शोध किस विषय को कवर करता है। मसलन कालिदास के साहित्य में वनस्पति और जीव जंतु, प्रेमचंद के साहित्य में स्त्री पात्र, जयशंकर प्रसाद की कविताओं में नारी चित्रण आदि आदि। क्या इन शोधों से समाज को कोई रोशनी मिलती है? क्या कोई दिशा मिलती है? कितने लोग उन शोधों को पढकर समाज को कुछ वापस लौटा पाते हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर दिया जाना चाहिए।
कई शोध प्रपत्र बताते हैं कि भारत में होने वाले शोध ख़ासकर पीएचडी के वे कूड़े से ज़्यादा नहीं होते। उसमें भी भाषा घेरे में आती है। न केवल भाषा बल्कि अन्य मानविकी विषयों में कोई बेहतर स्थिति नहीं है। सवाल यह उठता है कि पीएचडी करने बाद क्या करने वाले की ज़िंदगी में कोई बड़ा बदलाव घटित हो जाता है या समाज में कोई अनहोनी घटना घटती है। शायद दोनों ही घटनाएं व परिणाम पोस्ट पीएचडी की ऐसी है जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि न तो समाज को और न ही साहित्य में कोई विशेष परिवर्तन दिखाई देता है। यदि स्वांतः सुखाए की गई है तो बात अलग है। पीएचडी करने में कोई आपत्ति किसी को भी नहीं हो सकती। बल्कि सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि उस पीएचडी का औचित्य क्या है जिसका आम जिंदगी में इस्माल नहीं है। या जिससे समाज को कोई नई दृष्टि नहीं मिल पाती।

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