Tuesday, March 13, 2018

कविता की मांग


कौशलेंद्र प्रपन्न
सामान्यतौर पर कविता और कहानी को क्लास या फिर पाठ्यपुस्तकों तक महदूद कर दिया जाता है। जब कविता को क्लास से निकाल कर जनसामान्य तक ले जाने की कोशिश होती है तब कई प्रकार की चुनौतियों सामने आती हैं।
आज देश में कई सारे मंच हैं। कई सारे मंचीय कवि। सब की अपनी अपनी शैली है। सब की अपनी अपनी पहचान। किसी कोई को भी अच्छा या ख़राब नहीं कह सकते। डॉ राहत इंदौरी से लेकर मुनौव्वर राण हैं तो वहीं इमरान प्रतापगढ़ी भी हैं। कुमार विश्वास हैं तो कविता भी हैं। वंदना यादव भी हैं। इनकी आवाज़ और गले में नज़्म या गीत उतर कर एक आकार पाती हैं। लगता है इन पंक्तियों को इन्हीं के लिए रची गई हैं। वहीं मंच पर चिल्लाने वाले कवि और शायर भी हैं। जो छोटे मोटे शेर या कविता से मंच को जीत लेना चाहते हैं। मंच तो जीत लेते हैं। तालियां भी बटोर लेते हैं। लेकिन कुछ है जो पीछे छोट जाता है। वह है श्रोताओं के दिलों में बसना। स्मृतियों में अपनी कविता को बो देना।
मुझे अपने ही संस्थान के एक कार्यक्रम में कविता पढ़ने का आदेश कहें या मनुहार हुआ है। मैं तब से सोच रहा हूं कंपनी के लोगों ( मैनेजर, प्रोजेक्ट मैनेजर, सिनीयर मैनेजर, सीओओ, सीइओ) के बीच कैसी कविता का चुनाव किया जाए। क्योंकि मेरे श्रोता काव्य या फिर साहित्य के नहीं हैं। वे हैं मैनेजमेंट के लोग। इन्हें कविता सुनाना जोखिम भरा काम है। इनकी अपेक्षाओं को पूरा करना भी एक मसला है। हास्य गीत सुनाएं जो लोग हंसते हैं। हंसेंगे। संवेदनशील सुनाएंगे तो मनोरोगी कहलाएंगे। मुझे लगता है जो भी कवि या मंच पर बोलने अपनी रचनाओं से मोह छोड़कर श्रोताओं को ध्यान में रखकर रचना पाठ करता है तब आधी समस्या तभी खत्म हो जाती है।
कभी हरिवंश राय बच्चन जी को भी साहित्य में वह स्थान नहीं मिला था जो समकालीन कविओं को प्राप्त था। वजह इतनी सी थी कि मंचीय कवि का टैग बच्चन जी को लगा था। वो मंच पर आने के लिए पैसे भी लेते थे। आलोचना तो इसकी भी हुई किन्तु मंच पर कवियों को पैसे मिलने लगे यह एक अच्छी शुरुआत थी। वरना कवि अपनी कविता और श्रम के लिए कुछ मांगने तक से डरते थे।

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