Wednesday, March 21, 2018

पिछली यात्रा की कुछ बातें



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों कुछ शिक्षण-संस्थानों और बच्चों से बातचीत करने का अवसर मिला। पहला देहरादून और दूसरा सेंटर फोर कल्चर एवं रिसोर्स प्रशिक्षण केंद्र दिल्ली। दोनां ही जगहां के तज़र्बे अपने आप में कई स्तर पर शिक्षा और प्रशिक्षण की पद्धति को खोलने और समझने के लिए झरोखे सा काम करने वाली रही।
एक और देहरादून में मनोरम पहाड़ों के बीच बसा पुरकल यूथ डेवलप्मेंट सोसायटी की ओर से पहाड़ी और पिछड़े क्षेत्रों के बच्चे और बच्चियों के लिए तमिलनाडू के श्री स्वामी ने यही कोई बीस साल पहले इस बीया बान में बच्चों को पढ़ाने की ठानी। उनकी दिली ख़्वाहिश रही कि दिल्ली, चेन्नैय, मुंबई आदि शहरां में तो बच्चों को पढ़ने, स्कूल जाने के भरपूर अवसर मिलते हैं। बच्चे बेहतर प्रदर्शन भी करते हैं। लेकिन इन बच्चों के पास न तो सुविधा है और न व्यवस्था। व्यवस्था और संसाधन की कमी उनकी ज़िंदगी को ख़राब कर रही हैं। सो स्वामी जी ने यहां इस पुरकल गांव में यहीं कोई पांच बच्चों को लेकर पढ़ाना शुरू किया।
आज की तारीख़ में इस स्कूल में तकरीबन 502 बच्चे हैं। कुछ बच्चों से बातचीत हुई। एक गुलमोहर सदन की बच्ची ने बताया कि उसका बीजा नहीं बन पाया बरना वो भी यूएस जाती। कॉमर्स की छात्रा जो कि 11वीं में पढ़ रही है। वहीं पूनम जोशी जो यही की छात्रा रहीं और अब यहीं पर पैडागोजी और फैकेल्टी के तौर पर काम रही हैं। बताती हैं कि यहां पर पढ़ने के लिए बच्चों और अभिभावकों को कड़े प्रोसेंसंग से गुजरना पड़ता है। वहीं एक दस साला बच्चे से बात कर के लगा कमाल है कॉफिडेंस है। जिस अंदाज़ में वह अंग्रेजी में अपनी बात रख रहा था। वह सच में प्रशंसनीय था। हमने कई सवाल पूछे। मजाल है कहीं भी अटका हो। वो बच्चा प्रोजेक्ट कर नेशनल लेबल की प्रतियोगिता में शामिल हुआ। संभव है अगले साल वो यूएस चला जाए।
इस स्कूल में पढ़ने के लिए दूर दराज के गांव से बच्चे आते हैं। कुछ के लिए हॉस्टल की सुविधा है लेकिन वह सिर्फ 11 वीं और 13 वीं के लिए। यहां हर बच्चे को कोई न कोई गोद लिए हुए है। इसका मतलब है हर एक बच्चे के खर्चें को कोई और उठा रहा है। बच्चों को कुछ भी नहीं देना पड़ता। यहां के पिं्रसिपल ने बताया कि एक बच्चे की साल भर का खर्च तकरीबन 70से अस्सी हजार आता है।

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