Thursday, February 1, 2018

किससे मिलूं, बात किससे करूं



कौशलेंद्र प्रपन्न
किससे मिलें और किससे बात करूं यह तो हमारी अपनी इच्छा और पसंदगी और नापसंदगी पर निर्भर करता है। इसे कोई और तय नहीं कर सकता। हालांकि कई मर्तबा कोई और तय करने लगता है कि हमें किससे और कितना मिलना है। किससे बात करनी है आदि।
कम से कम हम सब इस बात में आज़ाद हैं कि हमें किससे वास्ता रखना है और किस हद तक किससे मिलना है। यह कोई और नहीं तय कर सकता। लेकिन अफ्सोस कि कई बार यह भी कोई और निर्धारित करने लगता है। कई बार दोस्त, कभी रिश्तेदार आदि। हम बिना जांचें परखें अपनी इच्छा और पसंदगी को मचांन पर रख देते हैं।
मुझे याद आता है हमारे मुहल्ले में एक परिवार रहा करता था। उसे परिवार के यहां कोई मिलने जुलने नहीं जाता था। क्या होली और क्या दशहरा। क्या न्योता क्या पेहानी। सब कुछ बड़ों ने तय कर दिया था।
उस घर में तीन बेटियां और दो बेटे रहा करते थे। बेटियां काबिल और स्कूल जाया करतीं जैसे और लड़कियां जाती थीं। बेटा स्कूल के बाद कॉलेज गया और जॉब करने की उम्र में उसने भी मेहनत की और आज रेलवे में लगा हुआ है। लेकिन उस परिवार से मिलना जुलना न रहा। यह तय किसने किया। एक परिवार ने या कि एक ख़ास मानसिकता ने।
सुना है। उस घर की मालकिन जो तीन बेटियों और एक बेटे की मां थी। पिछले साल अपने ही घर में मृत पाई गई। लोगों को तब पता चला जब घर में से बदबू आने लगी। यह तय करने वाले कौन होते हैं कि किनसे मिला जाए और किनसे मुझे बात करनी है।
यह चुनाव हमारा होता है कि हम किनसे और किनसे नहीं मिलेंगे और किनसे जीवन में साबका रखना है। दोस्तों के चुनाव में सावधानी ज़रूर रखनी चाहिए। कई बार यही दोस्त हमें सच्चे और स्पष्ट छवि देखने में बाधा भी बनते हैं।
जिससे बात करने, मिलने में मुझे या आपको खुशी मिलती हो तो क्यां न मिलें। क्यों न बात करें। क्या इसलिए बात करना बंद कर दें। या फिर मिलना छोड़ दें कि फलां ने ताकीद का था कि वह अच्छा नहीं है। मुझे देख सुन लेनें दें। बाकी आपके हिस्से का सच और छांव हैं। किस पेड़ को चुनते हैं?

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