Tuesday, February 13, 2018

प्रेम पहला या दूसरा



कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रेम पहली दफ़ा या दूसरी बार। लेकिन कहते हैं कि प्रेम तो प्रेम होता है। वह न पहला होता है और न दूसरा या फिर आख़िरी। करने वाला प्रेम किस मनसा से कर रहा है। यह भी काफी कुछ तय करता है कि प्रेम का स्वरूप और बारंबारता क्या होगी।
कभी इन पंक्तियों के लेखक से बात करते हुए निर्मल वर्मा जी ने कहा था कि मैंने तो जीवन में दूसरी बार प्यार किया। यह जवाब ज़रा हजम नहीं हुआ। सो आग्रह किया कि कृपया इस वाक्य का खुलासा करें। तब उन्होंने कहा पहली दफ़ा हम अपने मन और चिंतन में प्यार करते हैं। किससे करने वाले हैं। प्रकृति है या मनुष्य। जीव है या जीवन। लेखन है या भ्रमण। दूसरी बार हम सोचे हुए प्यार को एक्जीक्यूट किया करते हैं। तो इस तरह से हम कभी भी पहली बार प्यार नहीं करते।
आज देखें तो व्यक्ति जीवन भर प्यार के लिए तड़पता रहता है। लेकिन सच्चे प्रेम की तलाश में जीवन और जगत रीत जाता है। दरअसल सच्चा और झूठा प्रेम का तय कौन करे। मसला यह भी है। जो हमारे समाज में अश्लील है। वह संभव है दूसरे समाज में एक सामान्य और सहज व्यवहार माना जाए। इसलिए यह तय करना ज़रा मुश्किल है कि कौन सा प्रेम और कौन सी प्रेमाभिव्यक्ति सहज और कौन सी अस्वीकार्य।
समाज और और समय बदलते ही मान्यताएं भी बदल जाती हैं। यह इतनी तेजी से घटित होता है कि हम खुद को संभाल भी नहीं पाते। दो से तीन घंटे में या फिर रातों रात हम वैश्विक नागरिक हो जाते हैं। हमारे खान पान, रहने सहन, पहनावा आदि सबकुछ बदल जाता है। जहां हम भारत में पूरे तन के कपड़े पहने होते हैं और जैसे ही एयरपोर्ट पर उतरते हैं वैसे ही कपड़े कम और कमतर होते जाते हैं। यह देखे बगैर कि जो कपड़ा पहन रहे हैं क्या हमारी बॉडी उसमें अट भी रही है या नहीं। क्योंकि वहां की दुनिया वही पहन रही है इसलिए हमें भी पहनना है। ठीक वैसे ही प्रेम का मसला भी है।
क्योंकि किसी देश व समाज में प्रेम बंधन नहीं है। वस्त्र किसी के चरित्र प्रमाण पत्र नहीं है। वहां हम अपनी सोच और चिंतन छोड़ वहीं की संस्कृति अपनाने लगते हैं। हालांकि इसमें किसी को कोई एतराज़ भी नहीं होगा कि वैश्विक संस्कृति और नागरिकता हमें विश्व बंधुत्व की ओर ले जाती है। ऐसे में दूसरे की संस्कृति भी स्वीकार करने और मान्यता देने का माद््दा हो।

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