Friday, February 2, 2018

जब बात हो कहना तो...



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहने को हम दिन भर कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं। लेकिन कभी नहीं सोचा क्या वह सुन रहा है या फिर सिर्फ नज़रें ही हमारे पास हैं। कान तो उसके कुछ और ही सुन रहे होते हैं। आज की तारीख़ी हक़ीकत यही है कि हमें सुनना ही नहीं आता। बल्कि कहना तो यह चाहिए कि हम सुनना ही नहीं चाहते। या फिर हमें कहना नहीं आता। हमें तो यह भी समझना होगा कि क्या हम वास्तव में सुनना चाहते हैं? क्या हमारे पास सुनने की कला या दक्षता जिसे आज कल स्कील कहा करते हैं, हैं? यदि नहीं तो हमें सोचने की आवश्यकता है।
यदि बड़े नहीं सुनते या बच्चे नहीं सुनते तो उसके पीछे कई वज़हें हुआ करती हैं। मसलन कंटेंट की डिलिवरी ठीक नहीं है। केंटेंट का चुनाव ठीक नहीं है। या फिर कहने की शैली प्रभावशाली नहीं है। सुनने का बाह्य एवं अंतर वातावरण नहीं है आदि।
यदि मेरा मनोजगत् अस्थिर है तो शायद मैं अच्छ से अच्छे कंटेंट का सुनना चाह कर भी न सुन सकूं। कहने वाले की शैली भी बेहतरीन है किन्तु मैं सुन नहीं पा रहा हूं। वक़्ता को श्रोता के बहुआयामी घटकों को समझते हुए अपने कंटेंट के चुनाव और डिलिवरी करनी पड़ती है तब कोई श्रोता सुनने में दिलचस्पी ले सकता है।
अक्सर हमारी शिकायत होती है कि फलां सुनता नहीं। सुन नहीं रहा हैआदि। जबकि हम इसके पीछे के मनोविज्ञान को नहीं समझ पाते कि क्योंकर वह सुनने में रूचि नहीं ले रहा है।आज सुनाने वाले हज़ारों हैं।विभिन्न माध्यमों से हमें सुनाना चाहते हैं बल्कि सुना रहे हैं।लेकिन हम जिसे और जितना सुनना चाहते हैंउतना ही सुनते हैं।घर से लेकर स्कूल तक। कॉलेज से लेकर विश्वविद्याल तक। आफिस से लेकर दोस्तों तक सभी लगातार सुनाने में लगे हैं।पिता की चिंता हैकि उनका बच्चा उनका नहीं सुनता। बच्चों की चिंता कि मां-बाप उनकी नहीं सुनते। शिक्षक का मसला कि छात्र नहीं सुनते आदि। यही हाल आफिस में किसी की कोई नहीं सुनता।
नहीं सुनने और कहने बीच एक बरीक सी लाइन होती है।उसे यदि हमने हल कर ली तो मज़ाल हैकि आप कहें तो सामने वाला न सुने।सुनाने वाले के पास वह समझ और कौशल होनी चाहिए कि श्रोता की मनोदशा और बाह्य परिवेश को समझते हुए सुनाए।
हम फिल्मों से लेकर आूम जिं़दगी में ऐसे लोगों की ज़रूर सुनते हैंजिससे हमारी रोज़ मर्रे की जिं़दगी प्रभावित होती हो। जिससे हमें कुछ सीख पाते हैं।वह चाहे खेल खेल में या फिर डॉयलग में सुना जाए। ज़रूरत इस बात की हैकि कहने वाला कितनी शिद्दत से कह रहा हैऔर अपने कंटेंट के साथ किस प्रकार न्याय कर पाता है।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...