Wednesday, February 21, 2018

कभी देखिएगा शाम




कौशलेंद्र प्रपन्न
किसी शाम आप यूं ही बैठे हैं। कभी मायने कभी। जब से जॉब करने लगे हैं। जब से कॉलेज पूरे हो गए। जब से शादी हो गई आदि आदि। अव्वल तो कई कई दफ़ा आफिस में ही शाम हो जाया करती है। आते तो सुबह हैं जब सूरज उग चुका होता है। दोपहर भी कभी कभी देख लिया करते हैं यदि दफतर से बाहर निकले तो। लेकिन अरसे हो जाते हैं शाम न देखे। शाम देखने का मतलब बिना कुछ करते हुए बस यूं ही एक टक सूरज को ढलते देखना। देखना उसकी कम होती लालिमा को। धीरे धीरे आसमान का रंग बदलना। वैसे यह भी कोई देखना हुआ। आप कह सकते हैं? देखना ही है तो शाम की रौनक देखिए। देखिए बाजार कैसे जगमग जगमग हो रहे हैं। देखिए सड़के कैसे गाड़ियां की लाइट से झिलमिलाने लगती हैं।
शाम भी कोई देखने की चीज होती है। उदास और बेलौस। मगर नहीं कभी देखनी ही हो शाम को तो कन्याकुमारी में देखें। पटाया में देखें। मुंबई या किसी भी समंदर किनारे देखें। या फिर मनाली, कुल्लू या फिर खजियार में देखें कैसे देखते ही देखते पहाड़ी में गुम हो जाता है दिन और कैसे अचानक शाम उतर आती है घाटियों में। देखते ही देखते पहाड़ के घरों में रोशनी जलने लगती है।
ये सब कल्पना नहीं हैं। न ही यह कहानी का कोई प्लॉट है। बल्कि हक़ीकत है। यदि आपने शिद्दत से शाम होती देख ली तो सच में उस शाम को अपनी डायरी या फिर स्मृतियों में संजो लेंगे। लेकिन अफ्सोस कि हमारे पास संजोने को शाम नहीं है। कब सुबह होती है और कब देखते ही देखते शाम हो जाती है इसका एहसास तक नहीं होता।
बड़े बड़े शहरों में तो रात भी कहां होती हैं। कहां होती है अंधेरी रात। अंधेरा देखने के लिए आपको सीमांत में जाना होगा। हर तरफ रोशनी ही रोशनी। कई बार इतनी ज़्यादा रोशनी से आगे मिचमिचाने लगती हैं। कई बार जी चाहता है कुचकुच अंधेरी रात देखें। देखें अंधेरे में आसमान से ताकते तारों को। मगर दिल्ली क आसमान में तारे गोया आते ही नहीं।
कभी गुलमर्ग तो कभी कन्नाताल में शाम और रात दोनों देखी है। रात में इतने सारे तारे कि आंखें कम पड़ जाएं। कितने तारों को आंखें में जगह दी जाए। कहते हैं रात वो भी काली रात डरावनी होती है। मगर मेरी मानें रात कभी भी डरावनी नहीं होती। बल्कि रात जितनी खूबसूरत कोई और नहीं होती।
कभी देखिएगा शाम को। शाम वही जो आपके गांव में मिला करती थी। मिलती थी दूर ख्ेतों में चहलकदमी करती हुई। मैंने भी कभी शाम देखी है। मगर हज़ारों ऐसे लोग हैं जिनका काम इसकी इज़ाजत नहीं देता कि वो शाम देखें। मीडिया हाउस हो या रिसर्च या फिर डॉक्टरी पेशा इसमें हर वक़्त लाइट और लाइअ में काम करने पड़ते हैं। जब अचानक बाहर आते हैं तो आंखें प्राकृतिक रोशनी में चौंधिया जाती हैं।

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