Monday, February 12, 2018

छुपाने को क्या है?


कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारे शरीर में छुपाने को क्या है? शायद जैन धर्म के दिगंबर संप्रदाय की मूल स्थापना ही यही है। इस शरीर में कोई भी और कोई भी अंग ढकने छुपाने के लिए नहीं है। लेकिन हम ही हैं कि शरीर के ख़ास अंग को ढक कर रखते हैं। मनोविज्ञान बताता है कि परहेज करने वाली चीजों व मनाही वाली चीजों की ओर हमारा ध्यान ज़्यादा जाया करता है।
अजंता एलोरा, खजुराहो की मूर्तियां इस दर्शन मजबूती प्रदान करती हैं कि नग्नता व निवस्त्र हमेशा अश्लील नहीं होता बल्कि अश्लीलता और श्लीलता देखने वालों की नज़रों में होती हैं। यही कारण है कि सदियों से खजुराहों की मूर्तियां हमारी संस्कृति का हिस्सा रही हैं।
यदि इंडोनेशिया, थाईलैंड आदि जगहों पर जाएं तो वहां काष्ठ-लिंग सरेआम बाजार में मिला करती हैं। शायद वहां उन संस्कृतियों में यह त्याज्य नहीं, अश्लील नहीं बल्कि सामान्य वस्तु के रूप में देखने और स्वीकारने का आग्रह हो। वैसे भारतीय संस्कृति में शिवलिंग की स्थापना और उसका पूजन तो श्रेयस्कर माना गया है। यदि लिंग में कुछ भी छुपाने का होता तो उसकी पूजा न होती।
समाज में समरसता और उच्छृंखलता न व्याप्त हो जाए इसलिए वस्त्रों और ख़ास अंगों को छुपाने और ढकने का चलन व्यवहार में आया हो। वरना हमारे आस पास जीवन जंतु, पशु पक्षी सब के सब दिगंबर अवस्था में ही रहा करते हैं। लेकिन शायद इसलिए भी मनुष्य और पशु में अंतर बताते हुए हमें बताया गया है कि मनुष्य महज मैथुन,भोजन और जीवन नहीं जीया करता बल्कि एक मकसद के लिए जिं़दा रहता है। वह सिर्फ मैथुन नहीं करता बल्कि मानव और समाज कल्याण के लिए परिवार विस्तार के लिए मैथुन कार्य में रत होता है।
ओशा ने अपनी किताब सम्भोग से समाधी में लिखा है कि यदि साधक की जंघा पर नग्न स्त्री बैठ जाए और व्यक्ति विचलित न हो। तब समझना चाहिए वह साधना के लिए तैयार है। वैसे यह कठिन है किन्तु जतो सच्चे साधन होते हैं उन्हें अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण करना आ चुका होता है। उनके लिए क्या वस्त्र और क्या निर्वस्त्रावस्थ्या। सब समान होता है।
 

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