Tuesday, September 26, 2017

तकनीक का डर



कौशलेंद्र प्रपन्न
हां याद होगा आप को भी कि जब पहली बार आपके हाथ में कम्प्यूटर आया लगा होगा। छून से भी डर लगा करता था। न जाने वह डर कैसे और कहां से हममें समाया होगा। क्या पता कुछ ख़राब हो गया तो? कुछ ग़लत हो गया तो?
यह डर हम सभी में है। किसी में कम तो किसी में ज्यादा। डर का ही असर है कि एक दशक पहले जब विभिन्न विश्वविद्यालयों और स्कूलों में कम्प्यूटर दिए गए तो वो रैपर में ही बंधे मिले। धूल फांकते कम्प्यूटर आज भी स्कूलों में हैं। उन्हें कोई इसलिए नहीं छूता कि कहीं खराब हो गया तो?
उम्रदराज़ लोगों में इसका डर कुछ ज्यादा ही होता है। वे इसलिए कम्प्यूटर नहीं छूते कि कहीं कुछ ख़राब हो गया तो और आलम यह हुआ कि विभागों को मिले कम्प्यूटर चलाने के लिए एक अलग से पद सृजित किया गया।
डर महज कम्प्यूटर का ही नहीं होता बल्कि मोबाइल और अन्य डिवाइसेज के भी होते हैं। जबकि इलेक्टॉनिक सामानां की मूल प्रकृति ही सहज इस्तमाल होती है। यदि सामानों को चलाने में दिमाग लगाना पड़े या डर पैदा हो करे तो वह प्रोडक्ट यूजर फ्रैंडली नहीं माना जा सकता।
देखा तो यह भी गया है कि एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी स्वविवेक का प्रयोग कर बड़ी से बड़ी मशीनें चला लेता है। लेकिन एक अकादमिक व्यक्ति सहज और आसान मोबाइल को भी हैंडल करने से डरता है। इन दिनों पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अध्यापकों को आईसीटी की टेनिंगे दी जा रही है। है बहुत आसान लेकिन कुछ के लिए वह पहाड़ से ज़रा भी कम नहीं है। लेकिन क्योंकि सरकारी फरमान जारी हो चुके हैं कि सभी को आईसीटी प्रशिक्षण लेने हैं तो रिटायर होने वाले भी इनमें शामिल हैं।

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