Thursday, September 21, 2017

घुरनी चली महासेल में


कौशलेंद्र प्रपन्न
कहती है घुरनी कि जब महासेल लगा ही चुका है। हर सामान लोकलुभावन सेल में सजे हैं तो देरी किस बात की। बाजार जा कर खरीदने का सुख तो उठाया ही जाए। घुरनी बाजार बाजार, माल्स माल्स घूम आई।
जहां देखो वहीं भीड़। चारों तरफ अफरा तफरी। उबासी लेते, आइस्क्रीम चाटते बच्चे, बड़े। घुरनी थोड़ी परेशान होती है। बेचैन भी।
बाहर बैठी घुरनी सोचने लगी। क्यों न वो सामान ले ली जाए जो अभी छूट में है। उस पर भी जहां भीड़ नहीं है।
घुरनी बहुत सोच विचार कर कफ़न खरीदने का मन बनाती है। अभी सेल में शायद उस पर भी छूट हो। छूट है तो दो चार लेकर रख लेने में क्या हर्ज है। बच्चे लें न लें। आज कुछ भी तो तय नहीं है। कहीं उनके आते आते दो तीन साल हो गए तो क्या तब तक मैं बिना कफ़न की रहूंगी। बिल्कुल नहीं। अपना इंतज़ाम आज कर लेने में कोई बुराई नहीं है।
दुकानदार भी हैरान। क्या करोगी अम्मा इतने कफ़न ले कर। यह कोई ओढ़ने बिछाने के काम ना आने के। के करोगी। सनक तो नहीं गई हो। पगला गई हो का?
हमरे माथा एक दमे ठीक है। हम पगलाए नहीं हैं। सोचे रहे कि मरना तो हैबे करी। का पता बचवन सब कफ़न ओढ़ाने तक पहुंचेंगे कि नहीं। खरीद कर रख लेने में का जात है। कफ़न साथ रहे तो कोई भी ओढ़ा तो सकता है।
हैरान दुकानदार, हैरान उसकी बेचुआ की माई उसे टुकुर टुकुर देखे जा रहे थे। लेकिन मजाल कि घुरनी को हंसी आ रही हो। लेकिन वो भी कैसा कठकरेजा थी कि मानी नहीं। आज तो कफ़न लेकर ही जाउंगी। सो दुकानदार ने कफ़न दे दी।
सोचने को तो वो यह भी सोच रही थी कि पीड़ दान का इंतज़ाम भी आज ही कर ले। कल को बचे या न बचे। वैसे अभी उसकी उम्र मरने की नहीं थी। मगर फिर भी वो सब इंतज़ाम कर जाना चाहती थी।
घुरनी ने शाम में ही मिसराइन जी से कहा था आज हमर खाना रउआ घर होई। मिसराइन जी ने हां हां काहे ना हीं।
... मिसराइन जी को दिल्ली आना था सो सामान बांध कर तैयार थीं। मुहल्ले में तीन दिन बाद शोर मचा कि घुरनी.... पीठ के बल लेटी है और एक पांव भी गायब है।
मिसराइन जी भारी मन से रेलगाड़ी में बैठ तो गईं। लेकिन एक मन था जो वहीं उसी घुरनी में अटका रहा।

2 comments:

Pallavi Sharma said...

Man is mortal ,so ghurni is right .we can't predict anything .good one

Unknown said...

वाह भैया वाह क्या दृश्य दिया है ....क्यो न वो सामान ले लिया जाए जो अभी छूट में है और जिस पर भीड़ भी नही है....कफन ....बहुत लाजवाब लिखा भैया

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...