Monday, September 25, 2017

पाठ्यपुस्तक और शिक्षक




कौशलेंद्र प्रपन्न
कृष्ण कुमार के शब्दों में कहें तो ‘‘पाठ्यपुस्तकें शिक्षकों की सत्ता और ताकत को कमजोर करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो पाठ्यपुस्तक शिक्षकों को गुलाम बनाते हैं।’’ ‘गुलामी की शिक्षा और राष्टवाद’ पुस्तक में कृष्ण कुमार जी पाठ्यपुस्तक और शिक्षकीय सत्ता पर विमर्श करते हैं। शिक्षकों के लिए पाठ्यपुस्तक ख़ासा अहम औजार होता है। इससे शिक्षक डरते भी हैं और कक्षा में अंतिम विकल्प के तौर पर भी इस्तमाल करते हैं। शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशालाओं में पाया कि शिक्षकों को हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों को लेकर काफी शिकायतें हैं। मसलन यह किताब समझ में नहीं आती। इस किताब में बिना वर्णमाला के सीधे कविताओं से बच्चों का सामना होता है आदि। जबकि यदि शिक्षक किताब में दी गई शिक्षकां के लिए तीन चार पेज की भूमिका पढ़ लें तो शिकायतें दूर हो जाएंगी। बल्कि हुईं भी हैं।
पाठ्यपुस्तकों को अंतिम न माना जाए। यही आग्रह शिक्षकों को सृजनशील और गतिशील बनाए रख सकती है। पाठ्यपुस्तकों की जहां सीमा खत्म होती है वहां से शिक्षकों की भूमिका का आरम्भ माना जाता है। शिक्षक महज पाठ्यपुस्तकों का व्याख्याता, टॉस्सफर्मर नहीं होता और न ही शिक्षक पाठ्यपुस्तकों का लाउडस्पीकर होता है। बल्कि शिक्षक शब्द और वाक्यों के मध्य की रिक्तता में अर्थ पीरोता है। ताज्जुब तो तब होता है जब शिक्षकां को अपनी पाठ्यपुस्तकों की कविताएं, कहानी आदि भी याद नहीं होतीं। कार्यशालाओं में ऐसे भी शिक्षकों से रू ब रू होने का मौका मिला जिन्हें पाठ्यपुस्तकों में शिमल कविताएं और कहानियां तक याद नहीं रही हैं।
पाठ्यपुस्तकें शिक्षकों को पढ़ाने के लिए एक राह दिखाने का काम करती हैं। जरूरत इस बात की है कि हम पाठ्यपुस्तकों को एक औजार के तौर पर प्रयोग करें न कि उसे ही शिक्षा प्रदाता की भूमिका में स्थापित कर दें। जब हम स्वविवेक को पाठ्यपुस्तकों के हवाले कर देते हैं तब शिक्षा में गड़बड़ी शुरू होती है।

1 comment:

Unknown said...

बहुत बढ़िया लिखा भैया....और वास्तविकता में तो अब न पहले जैसी शिक्षा है और न ही शिक्षक

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