Tuesday, September 19, 2017

जब मैं मरूंगा


तब मैं मरूंगा,
मरूंगा ही,
बचपन में अमर पीठा खाया तो था,
खाए तो दादा भी थे,
मगर वो भी नहीं बचे।
बचे तो कलमुर्गी भी नहीं,
बचा तो प्रद्युम्न भी नहीं,
गौरी भी नहीं बची,
मरते अगर समय से,
तो अख़रती नहीं मौत।
जब मैं मरूंगा-
जो कि मरना ही है,
अमर पीठा भी बचा नहीं पाएगा,
तय है मरना तो,
सोचता हूं दिन कौन सा हो,
कौन सी तिथि रहेगी ठीक,
सोमवार मरा तो,
मंगल को मरा तो,
शनि को मरा तो लोगों को
रविवार मिलेगा,
सुस्ताने को।
रविवार तय रहा मेरा मरना,
आइएगा जरूर,
कुछ मंत्री संत्री भी होंगे,
कुछेक लेखक,
पत्रकार भी होंगे,
ऐसे सोचता हूं,
सोचने में क्या हर्ज़ है।
आएंगे नहीं,
यह भी मालूम है,
कोई बड़ा नाम नहीं रहा,
काम भी कोई ख़ास नहीं।
कम से कम मरने की तिथि,
दिन तो चुन लेने दो भगवन,
कौन मारेगा,
कैसे मारेगा,
मारेगा या कि
मर जाउंगा,
आपके ग्रूप से,
एक्जीट कर जाउंगा,
मेरे तमाम एकाउंट्स,
बिन अपडेट रहेंगे जब,
जान लेना
कि नहीं रहा कोई।
पर मन बना लिया है,
मरूंगा तो रविवार का दिन होगा।

1 comment:

ritupakhi said...

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