Tuesday, August 22, 2017

वो मैंनेजर नहीं थे


कौशलेंद्र प्रपन्न
वो मैंनेजर नहीं थे। वो शुद्ध अकादमिक थे। पढ़ने पढ़ाने में डूबे रहने वाले जीव थे। अचानक उन्हें आफर आया कि क्या वो मैंनेजर बनेंगे? मैंनेजमेंट चाहती थी कि कोई संस्थान का ही हो। विश्वासपात्र ते हो ही पहली शर्त थी।
विश्वास पात्र का मतलब समझ गए हांगे। कुछ दिन माह तो वो अकादमिक कामों से छूटे रहे। लेकिन कब तक खुद को रोक पाते। सो कभी कभार पढ़ाने भी लगते। लेकिन यह काम मैंनेजमेंट को पसंद नहीं आई। उन्हें कहा गया आप संस्थान को इस तरह तैयार करें कि बाहर वाले जांच में आएं तो ए ग्रेड दे कर जाएं।
... हालांकि वो दिखावे के खिलाफ थे। वो बच्चों, शिक्षकों का सम्मान करते थे। दिक्कत यहीं हुई। पुराने वालों को समझने में परेशानी हुई कि वो ऐसा क्यों कर रहे हैं। लेकिन हाइहैं वहि जो राम रचि राखा। उनपर रोज दिन दबाव बढ़ने लगे। जब कभी कुछ लिखने पढ़ने बैठते तभी टुन टुना बज जाता। बच भी कैसे सकते थे।
दबाव सहने की आदत जो नहीं थी। जो काम उन्हें मिला था। उसमें मैंनेजमेंट का पार्ट नहीं था। रात तकरीबन आधी हो चुकी थी। वो उठे और एक चिट्ठी लिख डाली। सुबह देर से उठे। फोन घन घनाते रहे। चिट्ठी भेज दी गई।
...कहा गया नए साहिब आए हैं। उनका मानना है कि लोग अपनी मेल हमेशा चेक किया करें। कभी भी कामों की मेल व वाट्सएप पर थ्रो हो सकती है। कई लोगों को परेशानी तो हुई। लेकिन मरता क्या नहीं करता। सो आनन फानन में बच्चों की मदद लेकर स्मार्ट फोन चलाना बड़ों के लिए एक पहाड़ सा था। लेकिन पहाड़ पार करना भी जरूरी हो गया था।

1 comment:

प्रवीण said...

कहानी जानी पहचानी सी लग रही है सर। किसी बहुत खास अपने के ऊपर गुजरी हुई

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