Tuesday, July 4, 2017

तक्सीम की पीड़ा और अतीतीय संवेदना


कौशलेंद्र प्रपन्न
जमीनी तक़्सीमियत और संवेदना का दो फांक हो जाना दो अगल भाव भूमि पर अपनी छाप छोड़ती हैं। मानवीय विकास यात्रा के इतिहास में ऐसी ही एक घटना को अंज़ाम दिया गया। इसे अब सत्तर बरस हो गए। लेकिन आज भी विभाजित, विखंड़ित मानवीय पीड़ा की टीस हमें बेचैन करती है। सन् 1947 का मंज़र ही ऐसा है जिसे जितनी बार, जितने कोणों से देखने समझने की कोशिश करें हजारों, लाखों अश्रुपूरित आंखें नज़र आती हैं। वह सजल नयन इस पार के हों या उस पार के। भौगोलिक भूखंड़ बेशक अलग कर दिए गए, लेकिन संवेदनाएं वहीं की वही हैं। इन्हें न तो किसी ने पाटने की कोशिश की और न ही वे भर ही पाईं। भरेंगी भी कैसे, क्योंकि हर किसी की भावनाएं, अपनत्व उस तक़्सीम में खंड़ित हुईं। खंड़ित तो मानवीय संबंध भी हुए जो उस पार या इस पार रह गए। इन संवेदनाओं को आज तक सीने में दबाए काफी लोग हैं जो जी रहे हैं। उन्हें अभी भी उम्मीद है कि एक दिन ऐसा आएगा जब दोनों की देशों के बीच के खटरास कम होंगे। दोनों की देशां के मध्य रिश्तों की स्नेहिल बयार बहेंगे। लेकिन यह कब और किन मूल्यों पर होगा यह अभी कहना व अनुमान लगाना ज़रा कठिन है। क्योंकि जब भी मानवीय रिश्तों की रेलगाड़ी पटरी पर आती नज़र आती है वैसे ही इसे डि रेल करने वाली ताकतें अपनी तमाम शक्ति इसमें झोंकने लगती हैं। दोनां ही देशों के रणनीतिकार,समाजवैज्ञानिक, शिक्षाविद् आदि मानते हैं कि यह तक़्सीम विश्व के सबसे विनाशकारी और विभाजन की घटना रही है। इसमें जान-माल की क्षति तो हुई ही साथ ही दोनों देशों के गंगाजमुनी संस्कृति को ख़ासा हानि पहुंची। यदि बंटवारे के इस दंश की टीस का अंदाज़ा लगाना हो तो दोनों ही देशों के कलमकारों, लेंसकारों, कलाकारां की कृतियों में बहुत मुखरता से दिखाई और सुनाई पड़ती हैं। वे साहित्यकार हों, संगीतकार हों या फिर सृजनात्मकता के जिस भी विधा से जुड़े लोग हों उन्होंने अपनी आहत संवेदना को स्वर देने में पीछे नहीं रहे। यदि हम साहित्य, कला, सिनेमा के आंगन में छायी छवियों की विवेचना करें तो एकबारगी 1947 से दो तीन साल पूर्व और दो तीन साल बाद की घटनाएं ताजी हो जाती हैं। यही कारण है कि जब हम सिक्का बदल गया, पेशावर टेन, खोल दो, टोबा टेक सिंह, झूठा सच, काली सलवार, दो हाथ, जिन्ने लाहौर नी वेख्या ते जन्मीया नइ आदि साहित्यिक रचनाओं में कलमकारां ने तब की घटनाओं को न केवल कलमबद्ध किया, बल्कि उसकी छटपटाहटों को शिद्दत से महसूसा भी है। वह एक प्रकारांतर से भोगा हुआ यथार्थ है।
साहित्य को इसीलिए समाज और कालखंड़ का जीता जागता सच कहा गया है, क्योंकि इस दर्पण में वर्तमान समय की बेचैनीयत, बजबजाहटों के साथ ही तत्कालीन समाजो-सांस्कृतिक हलचलों को भी दर्ज किया जाता रहा है। यह अलग विमर्श का मसला हो सकता है कि कई बार साहित्य भी पूर्वग्रह के राह पर चली है। दूसरे शब्दों में कहें तो यदि कलमकारों ने अपनी निजी मान्यताओं, आस्थाओं, पूर्वग्रहों आदि को नियंत्रित नहीं किया तो उसकी छाप उनके साहित्य में स्पष्टतः दिखाई देती है। और ऐसे लेखन ने साहित्य की मूल आत्मा, संवेदना को थोड़ा गंदला ही किया है। लेकिन जो रचनाकार अपनी वैश्विक जवाबदेही को महसूसा है और जिसने तटस्थता बरती है उनकी रचनाओं को आज भी बड़े सम्मान के साथ साहित्य में स्थान मिला है। ‘‘आज़ादी की छांव में’’ एनबीटी से प्रकाशित उपन्यास में मोहनीश बेग़म ने बड़ी शिद्दत से आजादी से दो साल पूर्व से लेकर 1948 तक की पूरी घटनाओं को जिस तरह से बयां किया है उसे पढ़कर अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि वह दौर कैसा रहा होगा। दंगे में लेखिका अपने प्रशासनिक अधिकारी पति जो नेहरू के करीबी थे, उन्हें हमेशा के लिए खो देती हैं। यह तो लेखिका की निजी क्षति थी। लेकिन उससे बढ़कर जो देश की स्थिति थी उसे समझना हो तो इस उपन्यास को पढ़ना चाहिए। यह तो एक बानगी हुई। इसके साथ ही जिसने भी खोल दो, दो हाथ, सिक्का बदल गया या फिर जिन्ने लाहैर नहीं वख्या... देखी व पढ़ी हो तो वे महसूस कर सकते हैं कि साहित्य ने किस प्रकार उस कालखंड़ को कलमबद्ध किया। एक लेखक की हैसियत तो इस पूरी प्रक्रिया में शामिल थी ही साथ ही एक जिम्मेदार संवेदनशील नागरिक भी जिंदा था तभी इस प्रकार की कहानियां, उपन्यास, रिपोतार्ज, यात्रा संस्मरण आदि की सृजना हो पाई। हम जहां कृष्णा सोबती, इस्मत चुग्ताई, असगर वजाहत, मंटो, कृशन चंदर, कुलदीप नैयर, कमलेश्वर, हरीश नवल आदि की रचनाओं का अनुशीलन करते हैं तो स्पष्टतौर पर तक़्सीम की रूखी हवा हमें छू कर निकल जाती है। कमलेश्वर जी की कितने पाकिसतान एक शोधपरक उपन्यास के हिस्से आता है जहां इतिहास के साक्ष्यों के बरक्स पूरी घटना की परतों की पड़ताल की जाती है। वहीं हाल ही में कृष्णा सोबती जी की लिखी अधुनातन उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान’ को पढ़ना दिलचस्प होगा। यह महज उपन्यास भर नहीं है, बल्कि लेखिका अपनी मातृभूमि पाकिस्मान के गुजरात को जीती है। साथ ही विभाजन के बाद हिन्दुस्तानी गुजरात के अनुभवों को पन्नों पर उकेरती हैं। ये वही लेखिका हैं जिन्होंने सिक्का बदल गया, मित्रो मरजानी आदि भी लिखा।
साहित्यकार, इतिहासकार, फिल्म निर्माता भी कई बार अपनी रचनात्मक और लेखकीय प्रतिबद्धता से न्याय करने में कहीं चूक जाते हैं। ऐसी चूकों को इतिहास मांफ नहीं करता। साहित्य व इतिहास लेखन में तटस्थता की मांग अहम होती है। मसलन यदि हम दोनों देशों में आज़ादी के एक दो साल पूर्व व पश्चात् पैदा हुए बच्चों की बात करें तो उन्हें किस प्रकार की छवियों से रू ब रू कराया गया व कराया जाता है यह जानना भी बेहद मानीखेज है। प्रसिद्ध शिक्षाविद्,कथाकार प्रो कृष्ण कुमार ने कुछ साल पहले पाकिस्तान में स्कूली स्तर पर सामाजिक और इतिहास के पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन किया था जिसमें उन्होंने इतिहासकारों और पाठ्यपुस्तक निर्माताओं की वैचारिक रूझानां को रेखांकित किया था। वहां गांधीजी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि को किस दृष्टि से इतिहास के स्कूलां पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जाता है इसकी विहंगम झांकी हमें ‘प्रिजुडिस एंड प्राइड’ किताब में मिलती है। शैक्षिक पहलकदमियों के चरित्र को समझना हो तो समय समय पर पाठ्यपुस्तकों में होने वाले फेर बदल को देख कर समझा जा सकता है। जब एक ओर शिक्षा को एक ख़ास मान्यताओं एवं पूर्वग्रहों को पोषित करने के लिए इस्तमाल किया जाता है। वहीं फिल्मों के माध्यम से भी कई राजनीतिक, सामाजिक हित साधने की कोशिशें होती रही हैं। वह चाहे बॉडर, एलओसी, गदर, टेन टू पाकिस्तान, गांधी, क्या दिल्ली क्या लाहौर, पिंज़र, जनरल बख़्त ख़ान, अर्थ, वीर-ज़ारा, फिल्मीस्तान, बंजरंगी भाईजान, सरबजीत आदि फिल्मों में भी साफतौर पर दिखाई वह पूर्वग्रहपूर्ण बरताव समझ में आती है। इन फिल्मां के साथ निर्देशक, पटकथा लेखक आदि की क्या वैचारिक झुकाव रही है वह हमें समझने में कोई परहेज नहीं करना होगा। लेकिन एक सामान्य दर्शक केवल मौज मस्ती, हंसी ठिठोली कर के बाहर आ जाता है। वहीं थोड़ा सा भी सजग दर्शक होता है वह उसकी बारीक तहों की बुनावट को पहचान लेता है। यहां मसला यह भी अहम हो जाता है कि क्या फिल्म के कंटेंट के साथ जो बरताव हुआ वह समुचित हो पाया या नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो क्या कंटेट के साथ न्याय हो पाया।
साहित्य की दुनिया ने विभाजन को किस प्रकार दस्तावेज़ित किया इसे जानना भी बेहद रोचक और दरपेश है। साहित्य के बारे में एक और स्थापित मान्यता यह है कि साहित्य तटस्थ होकर अपने समकालीन हकीकतों को दर्ज़ किया करता है। इस दस्तावेज़ीकरण की प्रक्रिया में किस प्रकार की चुनौतियां और सावधानियों का ख़्याल रखना उचित होता है इसे भी जानना और समझना जरूरी है। साहित्य की विभिन्न प्रचलित विधाओं में विभाजन की छटाएं देखी-पढ़ी जा सकती हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं में भी कहानी,उपन्यास ज्यादा लिखे गए। रिपोतार्ज़, यात्रा वृतांत, डायरी, व्यंग्य आदि विधाओं में थोड़े कम काम हुए। इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करें तो संभव है कहानी एवं उपन्यास ऐसी गली थी जिससे गुजरना दूसरी विधाओं की तुलना में ज़रा सहज प्रतीत होता है। या यूं कहें कि कहानियां हमारी जिंदगी की बेहद करीब रही हैं। इस दृष्टि से देखें तो मुज़्जफर अल जौकी की ‘विभाजन की कहानियां’ बेहद मौजू हैं। इस कहानी संग्रह में उन कहानियों को जगह दी है जो कहीं न कहीं किसी न किसी स्तर पर विभाजन की जमीन को छूती है।
यहां मलबे का मालिक मोहन राकेश लिखित कहानी की चर्चा प्रासंगिक सी लगी रही है क्योंकि यह कहानी विभाजन के आस-पास की मानवीय संवेदना को उकेरने में सफल रही है। एक संवाद देखिए गिना मिंया विभाजन के बाद पाकिस्तान को अपनी भूमि कबूल किया। लेकिन सात साल बाद भारत के अमृतसर आने का मौका मिला तो अपने घर, बच्चे, बहु को तलाशते हैं। वही घर जहां उनका बेटा,पोता पोती रहा करते थे। गलियों में गुजरते हुए अपने घर की निशां ढूंढ़ते हैं। इस दरमियां एक बच्चियों को देखकर दादा के एहसास से भर जाते हैं। उसे प्यार करना चाहते हैं। जेब से पैसे निकाल कर देना चाहते हैं। तभी उस बच्ची की मां कहती है ‘ पुच कर मेरा वीर! रोएगा तो तुझे वह मुसलमान पकड़कर ले जाएगा, मैं बारी जाउं।’ इस अविश्वास से जैसे ही गनी साहब का साबका पड़ता है उनकी जमीन खिसकती नजर आती है। एक और संवाद में उनके अंदर की हलचलों का पता मालूम होता है। जब गली के एक लड़के ने कहा ‘कहिए मियां जी, यहां कैसे खड़े हैं?’ बातचीत में रिश्तां की डोर खुलती है और मनोरी पहचान लेता है। कहता है, ‘ आप तो काफी पहले पाकिस्तान चले गए थे।’ इसका जवाब गनी मियां देते हैं ‘ हां, बेटे, यह मेरी बदबख्ती थी कि पहले अकेला निकलकर चला गया। यहां रहता तो उनके साथ मैं भी...’ दरअसल यह कहानी अपने पुराने घर के मलबे से जुड़ी है। क्योंकि यहीं इसी घर में उनके बेटे, बहु, पोते, पोती को सुपुर्द ए ख़ाक किया गया था और न जाने किसने इस घर में आग लगा दी थी। वहीं दूसरी एक और कहानी भीष्म साहनी की लिखनी अमृतसर आ गया भी पढ़ने येग्य है। यूं तो कहानियां और भी हैं। उपन्यास भी और हैं जो विभाजन के दर्द को पकड़ती हैं।
कथा-कहानियां से होता क्या है? बस इन झरोखों से हम अपने अतीत को झांक आते हैं। अतीत में क्या कुछ हुआ। क्यां हुआ? उससे हमारे जीवन पर क्या असर पड़े आदि को समझने का एक अपवसर मिल जाता है। लेकिन यहां एक दिक्कत यह आती है कि हम अतीत में तो चले जाते हैं, लेकिन डर यह होता है कि कहीं हम अतीत में ठहर न जाएं। कहीं हम उसके दबाव में न आए जाएं। क्योंकि यदि ऐसा होता है तो उससे हमारा, हमारे समाज का वर्तमान प्रभावित होता है। कथा-कहानियां इतिहास से एत्तर हमें मानवीय और संवेदनात्मक समझ देती हैं। यह काम साहित्य ही कर सकता है। और इस दृष्टि से भारतीय साहित्य अटा पड़ा है। वह चाहे उर्दू साहित्य हो, हिन्दी साहित्य हो या फिर अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य हर जगह विभाजन के छिटे मिलेंगे।
देश और भूगोल का विभाजन मानवीय संवेदना के विभाजन से थोड़ा अलग है। जिन पंक्तियां से यह पूरा विमर्श आरम्भ हुआ था उन्हीं बिंदुओं पर लौटते हुए हम समझने की कोशिश करें कि क्या साहित्य और मनुष्य मात्र दस्तावेज़ का हिस्सा भर होता है या उससे आगे भी यह मसला निकलता है। निश्चित ही मनुष्य की प्रकृति उसके समाज और परिवेश में काफी हद तक गढ़ी और रची जाती है जिसे स्वीकारने में किसी को कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए। लेकिन हम अपने स्वभाव और वर्तमान को अपने तई निर्माण कर सकते हैं। माना कि विभाजन हुआ। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता। लेकिन अब जब हमारे पास खिलने,विकसने का अवसर है तो कोई वजह नहीं कि हम अतीत में अटके रहें। हमें आगे निकलना होगा। इसकी झांकी, साक्ष्य हमारे साहित्य हों। साहित्य हमें आगे की राह दिखाए। दोनां ही देशों में साहित्य के माध्यम से भी मानवीय मूल्यां को संरक्षित  और प्रवहमान रखा जा सकता है। इसका प्रयास नागर समाज के कंधों पर है।
साहित्य और समाज के साथ मानवीय विकास की यात्रा को समझना बेहद दिलचस्प होता है। यह तथ्य पूर्व के साहित्यों में पढ़ने को मिली हैं। साहित्य यदि निरपेक्ष भाव से लिखी जाए तो उसमें घटने वाली घटनाएं पाठक समाज को नई रोशनी प्रदान करती हैं। विभाजन को हमनें जीया। एक बड़े वर्ग ने इसे महसूसा और क्षति से भी गुजरे। अब सवाल यह उठता है कि क्या खोए हुए अतीत पर रूदन ही करें या फिर साहित्य में जज़्ब उत्साह और बहुधर्मी और बहुसांस्कृतिक धाती को अपने जीवन में स्थान दें। यह हमारी आने वाली पीढ़ी पर काफी हद तक निर्भर करती है।




2 comments:

Seema Sharma said...

बहुत सुंदर कौशलेन्द्र भाई

Unknown said...

कौशलेंद्र भैया जिस तरह से आपने विश्लेषण प्रस्तूत किया है वो वाकई में कमाल की शब्दावली और अहसास के साथ है आपको इस लेखन की बधाई

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