Monday, July 31, 2017

प्रेमचंद का हामिद,गोबर


कौशलेंद्र प्रपन्न
हामिद और गोबर सब के सब अब नई काया में तब्दली हो चुके हैं। हामिद बाजार जाता है और चिमटा की जगह डोरेमौन खरीदता है। वो पिज्जा खाता है। जलेबी उसे पसंद नहीं। नए जमाने के नए नए व्यंजन खाता है। गोबर ने तो पूरी काया ही बदल ली है। उसके बदन पर गार्ड की वर्दी है। यूं तो बी ए पास है। लेकिन नौकरी एक मीडिया चैनल के गेट पर बजाता है। कभी सपना था उसका कि वो भी गन माइक लेकर रिपोटिंग करे। लेकिन प्रेमचंद के शब्दों में ‘फटी हुई भाग्य की चादर का कोई रफ्फुगर नहीं होता।’
प्रेमचंद और आज के समय में काफी फासले हो चुके हैं तब की प्राथमिकता और जरूरतों में आसमान जमीन का अंतर आ चुका है। नमक का दारोगा अब रातों रात आंखों में धूल झांक कर अपनी जेब भरता है। ज़रा सी भी आत्म नहीं पुकारती। वो इस्तीफा नहीं देता।
पूस की रात अब पूनम की रात हो चुकी है। जहां तक नजर जाती है रोशनी ही रोशनी। शहर भर में रोशनी का इंत्जाम किया जा चुका है। कोई कहीं छुप नहीं सकता। लेकिन जो रात में काम करने वाले हैं वे कर के निकल चुके हैं।
आज की तारीख में साहित्य और समाज बदल चुका है। साहित्य की धारा भी बदल चुकी है। साहित्य अब गांव देहात की जगह बाजार की बात करता है। बाजार में साहित्य ने हामिद को हैरी बना चुका है। पात्र बदल गए। पात्रों से संवाद बदल गए और उकनी चुनौतियां भी बदली गई।

3 comments:

Neha Goswami said...

वाह, बहुत अच्छा

प्रवीण said...

सत्य वचन

Unknown said...

साहित्य में बड़े बदलाव के बाबजूद हामिद और गोबर जिन्दा हैं मगर साहित्य से बाहर...

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