Wednesday, July 5, 2017

तृतीय लिंगी : स्कूली पाठ्यपुस्तकीय दुनिया में हाशियाजीवी


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा और पाठ्यपुस्तकीय दुनिया कायदे से अपने समाज को समझने, प्रगति में सहभागी होने, अपने परिवेश के साथ तादात्म्य स्थापित करने और बेहतर जीवन की कला हासिल करने में मनुष्य की मदद करती है। शिक्षा तो सा विद्या या विमुक्तये होती है ऐसा आप्त ग्रंथ और शिक्षा शास्त्र के दर्शन मानते हैं। यही शिक्षा के आधार स्तम्भ भी माने गए हैं। समाज के विकास और मानवीय प्रगति के इतिहास को समझने में शिक्षा की अहम भूमिका रही है। विश्व के तमाम शिक्षाविद्, चिंतक, विमर्शकारों ने शिक्षा के चरित्र को वैश्विक हित, बंधुत्व की भावना को बढ़ाने वाली ही माना है। लेकिन सवाल तब मुखर हो उठता है जब हमारे ही समाज के एक बड़े वर्ग को जानने-समझने के दरकार की परिधि से बाहर खदेड़ दिया जाता है। दरपेश है कि हम अपने समाज के अभिन्न हिस्से तृतीय लिंगी समाज के प्रति अपनी रूचि, जिज्ञासा, भय जैसे भावदशाओं से बाहर निकल कर उनकी दुनिया से परिचित हों और प्रयास करें कि उन्हें किस प्रकार से समाज की मुख्यधारा से जोड़ पाएं। अफ्सोसनाक बात यह है कि इस काम में हमारी शिक्षा, शिक्षा नीतियां, आयोग आदि मौन साध लेते हैं। शैक्षिक समितियों की सिफारिशें, शैक्षिक नीतियां,पाठ्यचार्य की रूपरेखाएं एकबारगी गैर बराबरी, असमानता और भेदीकरण की नीति अपनाती नजर आती हैं। यही कारण है कि आजादी से पूर्व व आजादी के बाद की भी शैक्षिक आयोगों, समितियों, नीतियां आदि में तृतीय लिंगी जिसे सामान्य भाषा व बोलचाल में हिजड़ा, किन्नर, खोजवा आदि कह देते हैं, उन्हें हमारी पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों और पाठ्यचर्याओं का हिस्सा नहीं बनाया जाता। संभव है बच्चों और समाज में इस वर्ग को लेकर जिस प्रकार भय बच्चों में बैठ जाता है उसमें एक बड़ा कारण शिक्षा का भी है। क्योंकि शिक्षा उनके प्रति समाज में व्याप्त भय को समझने, दूर करने का कोई प्रयास नहीं करती। हालांकि लोकतंत्र के चारों स्तम्भों में अब तृतीय लिंगी समाज प्रति संवेदनशीलताख् जागरूकता पैदा करने की कोशिश की जा रही है।
स्कूली पाठ्यपुस्तकों की बात की जाए तो हिन्दी, समाज विज्ञान, विज्ञान आदि में तृतीय लिंगी समाज की चर्चा से बचा गया है। न तो हिन्दी की पाठ्यपुस्तकें रिमझिम, बहार, बासंती आदि तृतीय लिंगी समाज को समझने, जानकारी हासिल करने के लिए कोई पाठ, राह दिखाती हैं और न ही इस समाज के प्रति जागरूकता पैदा करने में ही बच्चों, शिक्षकों की मदद करती है। इन किताबों में शामिल कहानियां, कविताएं, यात्रा संस्मरण आदि विधाएं तृतीय लिंगी समाज की कोई मुकम्मल झलक प्रस्तुत करती नजर नहीं आतीं। एक प्रकार की चुप्पी को कायम रखते हुए मौसम, फलों, बाल-खेल, समाज के प्रौढ़ वर्गां की झांकियों तो मिलती हैं। इन कहानियों, कविताओं में समाज के विभिन्न पेशेवर वर्गों डॉक्टर, बड़ही, लोहार, मोची, मास्टर किसान आदि के कार्य व्यापारों की  जानकारी तो मिलती है, लेकिन तृतीय लिंगी किस कार्य व्यापार में शामिल होते हैं। वे अपनी जीविका के लिए क्या काम करते हैं इसकी न तो जानकारी मिलती है और न ही कोई समझ विकसित हो पाती है। वहीं समाज विज्ञान की पुस्तकें भी चुप्पी की संस्कृति को ही अपनाती नजर आती हैं। प्राथमिक स्तर पर चलने वाली आस-पास, हमारी दिल्ली, हमारा भारत व हमारा विश्व पुस्तक भी बच्चों को तृतीय लिंगी समाज से किसी स्तर पर जोड़ने में विफल माना जाएगा। क्योंकि कोई भी पाठ, वाक्य ऐसे नहीं लिखे गए हैं जिससे इनके बारे में कोई धारणा निर्माण में बच्चों की मदद कर पाए। स्कूली दुनिया प्रकारांतर से तृतीय लिंगी समाज को तवज्जो ही नहीं देती है। ऐसा क्यों होता है इसकी जड़ में जाएं तो हम पाते हैं कि हमारा स्कूली संसार बाह्य संसार का ही छोटा रूप है। जहां प्रार्थनाएं, गतिविधियां, आप्त वाक्यों आदि को यथावत् शामिल कर लिया जाता है जैसा बाह्य संसार में घट रहा है। यिउद ठहर कर विवेचना करें तो हमारे आंखें खुलती हैं कि हमने बड़ी ही साफगोई से इस समाज को स्कूली तंत्र से काट रखा है। फिर हमारे बच्चे इस तृतीय िंलंगी समाज के बारे में जानकारियां किस ज्ञान-स्रोत से हासिल करते हैं।
कोठारी आयोग 1964-66, राष्टीय शिक्षा नीति 1986, राष्टीय शिक्षा आयोग, पुनरीक्षा समिति 1990, राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 1978, 2000, 2005 आदि भी तृतीय लिंगी समाज की चिंता से बेख़बर नजर आते हैं। गोया यह वर्ग न तो शिक्षा हासिल करने पर अपना दावा पेश कर सकते हैं और न ही स्कूली तंत्र में अपने बच्चों व स्वयं को जोड़ सकते हैं। वह तो देशीय समितियों की स्थिति है। यदि सहस्राब्दि विकास लक्ष्य 2000 और 2016 में संशोधित सतत् विकास लक्ष्य 2030 में भी यह वर्ग कहीं स्थान नहीं पाते। इन लक्ष्यों में इस वर्ग के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य,सरुक्षा आदि के बारे में एक पंक्ति के वायदे की भी घोषणा नहीं मिलती। यह इस ओर इशारा करता है कि न केवल भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर नीति निर्माता, विकास की गति को तय करने वाले भी इस वर्ग को मनुष्य की श्रेणी में गिनते हैं। यदि इन्हें मनुष्य माना जाता तो शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास,सुरक्षा आदि कीं चिंता और इत्जा़मा की ओर सरकार और नागर समाज पहलकदमी करते दिखाई देते।
माना जाता है कि साहित्य अपने परिवेशीय घटनाओं, हलचलों, बजबजाहटों स्वरों को दस्तावेज़ित करता है। वह चाहे कोई भी सामाजिक परिघटना ही क्यां न हो। साहित्य की विभिन्न विधाओं में शुमार और ख़ास चर्चित विधा कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, रेखाचित्र आदि ने तृतीय लिंगी समाज को संज्ञान में लेते हुए अपनी प्रतिबद्धता दर्ज करने में पीछे नहीं रहीं। 2016 में आई लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का आत्मकथ्य किताब ‘मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी’ कई दृष्टि से पठनीय है।इसमें लक्ष्मी ने अपनी जिंदगी के उन पहलुओं से पाठक वर्ग को रू ब रू कराती हैं जिसे गढ़ने में समाज ने अहम भूमिका निभाई। उन्होंने यूएन में तृतीय लिंगी समाज के जिए उठाई गई आवाज का हवाला भी देती हैं। बचपन में किन किन लोगों, दोस्तों ने उन्हें एहसास कराया कि वे ख़ास हैं। किन किन न उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया।कहां कब वो द्रवित और दुखी हुई। कौन सी घटना ने उन्हें तोड़ इन सब की गुत्थियां लक्ष्मी इस किताब में खोलती हैं। वहीं अंग्रेजी में प्रकाशित एक किताब किन्नरों की समाजिक, आर्थिकख् राजनीति चरित्र को रेखांकित करती है। ‘निदर मैंन नॉर विमन इन इंडिया’ इस किताब में आधिकारिक तौर पर किन्नरों की प्रकृति, भूगोल और राजनीतिक स्थिति की चर्चा करती है।इसके साथ ही इनकी दुनिया में देवी देवताओं की पूजा-अर्चना, बुचरा देवी की आराधना एवं पुजन की पद्धति भी बताई गई है।इस किताब को पढ़ने का अर्थ हैइनके संसार के करीब आना। वहीं महेंद्र भीष्म की लिखी किन्नर कथा भी पठनीय है।बड़ों की कहानियों, उपन्यासों में तो तृतीय लिंगी स्थान पाने लगे हैंलेकिन अभी बच्चों की दुनिया से ये लोग नदारत हैं।हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि हम अपने बच्चों को इनकी दुनिया से स्वस्थ परिचय कराए।ंयह तभी संभव होगा तब हमारी पूर्वग्रह हमारी नीतियों, पाठ्यपुस्तकों के चरित्र को न निर्धारित करें। किन्नरों के संसार को जितना बाहर से देखने और समझने की कोशिश की गई हैवह पर्याप्त नहीं मानी जा सकती। इनकी दुनिया को समझने के लिए हमें मानसिक तैयारी करनी होगी।

1 comment:

Unknown said...

Very good angle. sensitive

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...