Wednesday, July 19, 2017

आर्थिक बाजार से बाहर साहित्य



कौशलेंद्र प्रपन्न
बाजार में क्या हो रहा है। कौन बाजार से गहरे प्रभावित हो रहा है। किन की नौकरियां खतरें में हैं आदि सवालों से अमूमन साहित्य दो चार नहीं होता। खासकर साहित्य कविता,कहानी,उपन्यास आदि तक महदूद रहता है।
साहित्य की यह सीमित दायरा है। हालांकि कुछ कहानियां, उपन्यास, कविताएं बाजार की प्रकृति और प्रभावों को लेकर भी लिखी गई हैं लेकिन संख्या और प्रभाव में ज्यादा नहीं हैं। महज दो चार कविताएं, कहानियां लिख देने से साहित्य अपने वृहद उद्देश्यों से मुंह नहीं मोड़ सकता। साहित्य से जिस प्रकार के हस्तक्षेप की उम्मींद की जाती है वहां पर हम साहित्य को पीछे पाते हैं।
साहित्य में एक और सवाल बड़ी ही शिद्दत से उठाई जाती है कि पाठकों तक किताबों की पहुंच नहीं हो पाती। इसके पीछे केवल लेखक,प्रकाशक, वितरक ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि प्रबंधन की भी अहम भूमिका रहती है। यदि अंग्रेजी और हिन्दी के वितरक, प्रकाशक की रणनीतियों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि अंग्रेजी के प्रकाशक अपनी किताबों उत्पाद को खपाने के लिए बाजार के विभिन्न औजारों का इस्तमाल करते हैं। इसे हथकंडे का नाम दे सकते हैं। यदि एक भाषा में ऐसा किया जा रहा है तो दूसरी भाषाओं को इसे अपनाने में क्यों गुरेज करना चाहिए।
इस समय बाजार में कई नए किस्म की चुनौतियों की शुरुआत देखी जा सकती है। ऐसे में साहित्य को भी आगे आना होगा। बाजार के व्यापक चरित्र को समझने और उसके अनुसार अपनी रणनीति बनाने पर विचार करने होगे। दुनिया भर में साहित्यकार विभिन्न मसलों को लेकर न केवल आवाज बुलंद कर रहे हैं बल्कि उससे निपटने के लिए विकल्पों पर भी मंथन कर रहे हैं।

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