Monday, July 10, 2017

नौकरी खो चुके लोग और साहित्यकार की चुप्पी


कौशलेंद्र प्रपन्न
सन् 1930, 2008, 2016-17 आदि वर्षां के दौर को बाजार और आर्थिक दृष्टि से काला वर्षमाना गया हैबल्कि कहें तो गलत नहीं होगा। इन वर्षों में वैश्विक स्तर पर आर्थिकी उथलपुथल काफी दर्ज की गईं। हजारों, लाखों लोगां की नौकरियां चली गईं। दूसरे शब्दों में कहें तो खत्म कर दी गईं। वे लोग जो एक शाम पहले नौकरी वाले थे अगली सुबह उनके हाथ में बेरोजगारी की कतरनें थीं। इसे आर्थिक दुनिया में पिंक स्लीप कहा जाता है।सन्1930-32 में पहली बार विश्व ने आर्थिक मंदी जैसे शब्द से परिचित हुआ था। उस समय वैश्विक स्तर पर लोग बेरोजगार हुए। मानसिक बीमारियों मसलन-अवसाद, अकेलेपन से उपजी उदासीनता, निराशा,दुःचिंता आदि जोरों से फैलीं। लोगों ने आत्महत्याएं भी कीं। लेकिन अफसोस की आज हमारे पास ऐसा कोई दस्तावेज नहीं हैजिससे हम जान पाएं कि कितनी आत्महत्याएं हुइंर्। कितनां की नौकरी चली गई आदि। अब आते हैं 2008-9 का वैश्विक आर्थिक मंदी। इसका मंदी का छिटपुट असर फरवरी मार्च से दिखने तो लगा था लेकिन विकराल रूप अगस्त से धारण करता ळेंएक ओर सरकार लगातार बाजार और कंपनियों को आश्वासन दे रही थी कि ऐसी कोई स्थिति नहीं हैसब कुछ नियंत्रण में है।कुछ भी बेकाबू नहीं हैआदि। लेकिन बाजार दिन प्रतिदिन गिर रही थी। कंपनियों से लगातार चुपके चुपके लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा था। लोग सडक पर आने लगे थे। शुरू में तो कुछ अखबारों ने इस बाबत खबरें छापने का साहस दिखाया।लेकिन यह ताकत आगे चल कर जाती रही।जब मीडिया की दुनिया भी छंटनी के दौर से गुजरने लगी। मीडिया घरानों से भी रातों रात पत्रकारों से कहा गया कि कंपनी को अब आपकी सेवा की आवश्यकता नहीं। और देखते ही देखते हजारो पत्रकार अगली सुबह से खुद मंदी की ख़बर बन गए। लेकिन किसी अखबार व न्यूज चैनलों में ऐसे लोगों के लिए सिंगल कॉलम की जगह भी मयस्सर नहीं हुई। जो बच गए वो अपनी नौकरी बचाने में लगे रहे। अखबार में खबरें तो आती जाती रहती हैं।जाने व मरने वाले के साथ स्वजन व परिजन कहां मरते हैं।गौरतलब बात हैकि इतनी बडी वैश्विक करवटों,घटना पर साहित्य समाज एकदम मौन साधे कविता, कहानी, उपन्यास आदि में प्रेम,विद्रोह, संघर्षकी तमाम मुद्दों पर शब्दों को रचता रहा लेकिन ऐसे लाखों लोगों के लिए साहित्य में कोई जगह नहीं मिली। बेहद कम व न के बराबर कोई कहानी, उपन्यास आदि लिखी गई जो बता सके कि आखिर 1930, 2008, 2016 में क्या हुआ व समाज में क्या ऐसी घटना घटना घटरही थीजिसे नजरअंदाज नहीं किया सकता।
वैश्विक मंदी एक मसला है दूसरा मसला कंपनियों में ऑटोमेशन का है। ऑटोमेशन की वजह से 2016 और 2017 में काफी नौकरियां जा चुकी हैं। बड़े बड़े पदों पर बैठे कर्मियों की नौकरियां शायद बच पाईं लेकिन मंझोले किस्म के कर्मियों की नौकरी जा रही है। पिछले चार पांच माह पर नजर डालें तो एचसीएल, इंफोसिस, टेक महिन्द्रा, रैनबक्सी जो अब सन फॉर्मा के नाम से जानी जाती है। वहां भी ऑटोमेशन की वजह से हजारों लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। हाल ही में उक्त कंपनियों से चार हजार से लेकर चौदह हजार तक लोगों को निकाला जा चुका है। ये आंकड़े तो वे हैं जो मीडिया को दिए गए। जबकि संभव है यह संख्या और भी ज्यादा हो। दिल्ली में पिछले दिनों मैक्डोन्लस के तकरीबन पचास दुकानें बंद कर दी गईं और रातों रात 1700 कर्मचारी सड़क पर आ गए। इन घटनाओं को ख़बर के रूप में लिया गया। गोया ये लोग मानव न होकर एक ख़बर भर की हैसियत रखते थे।
साहित्य के बारे में कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण हुआ करता है। इस दर्पण में समाज की हलचलों की पड़ताल और झांकी देखी पढ़ी जा सकती है। लेकिन बेहद अफ्सोसनाक बात है कि साहित्य ऐसे मसलों को अपनी किसी भी विधा में जगह नहीं दे पाई। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि साहित्यकार किसके लिए और क्यों लिखता है इसका जवाब भी प्रकारांतर से मिलता है। यदि साहित्यकार समाज की जबान है तो उसे इन मसलों पर भी बोलना और लिखना उसका फर्ज बनता था। लेकिन साहित्यकारों की चुप्पी पॉलो फ्रेरे की शब्दावली में चुप्पी की संस्कृति को पोषित करने वाले साहित्यकार सिर्फ कविता,कहानी लिख कर आनंद लेने में लगे हैं। बल्कि कहना चाहिए साहित्य लेखन का एक छुपा एजेंडा पुरस्कार हसोतना भर रह गया है। साहित्य से समाज को क्या दृष्टि मिलती है? इस सवाल को बड़ी ही साफगोई से हाशिए पर धकेल दिया गया। याद हो कि 1930 के आस पास तमाम साहित्यकार विभिन्न मुद्दां पर उपन्यास और काव्य की रचना कर रहे थे। इनमें प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा आदि स्वनामधन्य साहित्यकार शामिल हैं। लेकिन इनमें से किसी ने भी मंदी जैसी बड़ी वैश्विक घटना को अपनी रचना के लिए नहीं चुना। ऐसा कहना अनुचित होगा कि इन्हें इस घटना की जानकारी नहीं रही होगी। बल्कि जानते समझते हुए इससे बचने की कोशिश ही कह सकते हैं।

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