Monday, July 3, 2017

फिटिंग रूम के बाहर


कौशलेंद्र प्रपन्न
मॉल हो या कोई बड़ी दुकान हर जगह भीड़ न केवल कपड़ों की होती है बल्कि लोगों की भी होती है। ख़ासकर मॉल में जब सेल का मौसम होता है। यह सेल का मौसम कभी साल में दो या तीन बार ही आया करते थे। लेकिन अब गाहे ब गाहे साल में जब भी दो या तीन दिन की लंबी छुट्टियों के दिन आते हैं तमाम मॉल्स, दुकान, ऑन लाइन या आफ लाइन सेल की मंड़ी सज जाती है। ग्राहकों को लुभाने के लिए तरह तरह की घोषणाओं, छलनाओं का इस्तमाल किया जाता है। कोई वेबसाइट साठ से अस्सी फीसदी छूट देते हैं तो कुछ अन्य साइट दो खरीदने पर तीसरा मुफ्त आदि। हम भोले भाले, स्याने ग्राहक इन्हीं मेलों के क्षणों का गोया इंतजार में बैठे होते हैं। बस घोषणा को छांनकर सुनते और भागने लगते हैं। यह भागम-भाग किसी मॉल या ऑन लाइन सेल के प्लेटफॉम पर रूकता है।
मॉल में जितनी भीड़ होती है वहीं बड़े ब्रांड जहां सेल कम होते हैं वे दुकाने तकरीबन खाली सी होती हैं। वहां कपड़े भी सलीके से रखी होती हैं। वहां भीड़ कम होने की वजह से सब के सब व्यवथित होती हैं। वहीं दूसरी जगहों पर इतनी भीड़ होती है कि ठीक से कपड़े देख भी नहीं पाते। एक ढंग के कपड़े मिल भी जाए तो उसपर औरों की भी नजर होती है। आप खारिज कर दें तो वे उठा लें। एक किस्म से वहां छीना छपटी सा खेल खेला जाता है। दिलचस्प तो तब होता है जब हम अपने बदन के अनुरूप कपड़े नहीं हैं या तो छोटे व बड़े हैं तो उसे ऑल्टर करा के पहने के लोभ में उठा लेते हैं। यानी कपड़े बदन के अनुकूल नहीं हैं तो बदन को बढ़ाने या घटाने की कोशिश करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में हम इतने कपड़ों का चुनाव बल्कि अंबार लगा लेते हैं कि फिटिंग रूम के बाहर खड़ी व खड़ा कर्मचारी आप को एक एक कर कपड़े पहनने के लिए देता है। एक अविश्वास का सामना ग्राहकों को करना पड़ता है। लेकिन उसपर भी हमें शर्म नहीं आती। शर्म तो हमें तब भी नहीं आती जब हम बेढ़ब का कपड़ा पहन कर बाहर दिखाने के लिए खड़े/खड़ी होती हैं।
अब एक अलग मंजर देखने को मिलता है। जब आपकी पत्नी/पति नए कपड़े पहन कर रूम से बहार झांकते हैं। उनकी नजरें उम्मीद में अटकी होती हैं कि क्या प्रतिक्रिया आने वाली है। खुद पर भरोसा कम देखने वाले पर ज्यादा होता है। यदि देखने वाले ने हांमी भर दी बस समझिए सारी मेहनत सफल हुई। वरना रूम के बाहर इंतजार कर रहा व्यक्ति अपने फोन में व्यस्त हो जाता है। उसका ध्यान तब आपकी ओर जाता है जब अंदर से बाहर की ओर आ रही आवाज कहती है यहां भी फोन पर लगे हो। ज़रा देख लो कैसी लग रही हूं। कई बार इतनी कोफ्त होती है इस देखने में आधे घंटे से एक घंटे का वक्त भी लग सकता है लेकिन देखने दिखाने के लिए मजबूर हैं। यदि कपड़ा बदन से चिपक रहा है तो बड़ा लाने पति दौड़ता है या कर्मचारी। अव्वल तो जो कपड़ा आपको पसंद आ जाए उसकी साइज आपके मकूल नहीं मिलती। आपसे पहले कोई और हाथ साफ कर चुका होता है। ऐसे में मायूस होकर किसी और कपड़े से काम चलाते हैं।
फिटिंग रूम के बाहर पहनने और देखने वालों की अच्छी भीड़ होती है। कई मर्तबा तो पता ही नहीं चलता कि किसकी वाली निकली। मेरी या साथ बैठे वाले की। सावधानी घटी तो मामला खराब हो सकता है। दूसरी के कपड़े ध्यान से देखने लगे तो अपनी वाली कह सकती है, मैं तब से खड़ी हूं लेकिन तुम्हें क्या फर्क पड़ता है। तुम्हारा तो अब ध्यान ही नहीं रहता। लेकिन आखिर देखने वाला भी कब तक बकोध्यानं रख सकता है। कभी तो ध्यान भटकेगा ही। ख़ासकर तब जब लंबे समय से फिटिंग रूम के बाहर खडा होना पडे।
कभी वह दौर भी था जब दर्जी वाला कपड़े का माप लेने के बाद एक दिन मांपने के लिए बुलाता था कि आइए और नाप लीजिए। कोई कमी रह गई हो तो समय पर ठीक किया जा सके। वहां भीड़ का प्रश्न ही नहीं उठता था। लेकिन जब से रेडीमेड कपड़ों की आदत पड़ी है। तब से धैर्य जाती रही। हमें तुरत फुरत में कपड़े चाहिए। अभी के अभी चाहिए। और आलम यह हो चुका है कि हमें बेशक फलां कपड़े, जूते की जरूरत न हो लेकिन क्योंकि सेल के मौसम की घोषणा हो चुकी है इसलिए लेकर रख लेने की आदत से लाचार हो जाते हैं। इन दिनों जीएसटी की घोषणा के बाद हर दुकान, ब्रांड, कंपनी अपने माल को खपाने में लगे हैं। जूता बेशक पुराने हों, कपड़े पुराने फैशन के हो गए हों, लेकिन ग्राहकों को लेना है। क्योंकि क्या पता जीएसटी के बाद कैसे आलम हो। कुछेक ब्रांड और दुकानों में घूम आएं आपको मालूम चलेगा कि जो जूते, कपड़े आप दिनों में दो या तीन हजारी टैग में इठलाते नजर आते हैं उनपर चार से पांच हजार का टैग लगाकर साठ और सत्तर प्रतिशत की छूट की बोली लगाई जा रही है। अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि बिना छूट में वही सामान दो से तीन हजार में खरीद सकते हैं। लेकिन छूट के लोभ में हम पुराने फैशन के सामान से घर भरने में पीछे नहीं रहते।
यदि हम अपने आस-पास नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि मैक्स वेबर के जामने के मितव्ययी, अनुशासिक और सादा जीवन बिताने वाले काफी कुछ विदा हो गए हैं। उनकी जगह जो उपभोक्ता आए हैं उनका जोर वस्तुओं और सेवाओं के इस्तमाल से अपनी अवाश्यकताओं को संतुष्ट करने के साथ ही अपनी शान-शौकत, सामाजिक हैसियत और आर्थिक स्थिति के प्रदर्शन पर कहीं अधिक है। वे अपने को समाज के अन्य लोगों से अगल दिखलाने की पुरजोर कोशिश करते हैं। इस तरह उपभोग के चरित्र में एक बड़ा सांस्कृतिक बदलाव आया है। अब उत्पादक के बदले उपभोक्ता समाज का केंद्र बिंदु बन गया है।
भारत में जिस कदर कपड़े, जूते महंगे हुए हैं उस अनुपात में विदेशों में महंगे नहीं हैं। कई मर्तबा ऐसा भी महसूस होगा कि कपड़ों के दाम इतने बढ़ गए हैं कि आम आदमी क्या पहने क्या खरीदे। जबकि रोटी, कपड़ा और मकान की जरूरत हर व्यक्ति की है। कम से कम तन को ढकने के लिए साधारण व्यक्ति को असकी जेब क अनुसार कपड़े तो मयस्सर हों। लेकिन बाजार उन कुछ लोगों के लिए नहीं सजती। बाजार सजती है ख़ास वर्ग के लिए जो पहले से ही पांच दस कपड़ों से आलमारियां भरे हुए हैं और और खरीदने के लिए उतावले हैं। ऐसे में एक साधारण व्यक्ति की जरूरतों को बाजार नजरअंदाज कर देता है।


5 comments:

Unknown said...

A true account of todays physce,focussed on the physical dimension of well being and trying to buy happiness from the material.

BOLO TO SAHI... said...

Thanks Lalit ji for your valuable remarks.

archana said...

When the inner being is flawed, the desire to beautify the outer being is immense

Vishakha said...

Well said! Reality of today's world. Running across to achieve things to get peace!!. IRONY

Unknown said...

भैया जी बदलते वक्त के साथ सबकुछ बदल गया न लोग वो रहे न व्यवस्था

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...