Sunday, September 30, 2018

संघर्ष से पूरे होते सपनों की कहानी सूई धागा





कौशलेंद्र प्रपन्न

कोई लंबे समय तक अपनी पुश्तैनी काम को नकार नहीं सकता। लेकिन आज दौर ही ऐसा आ चुका है कि हम अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़कर बाजार में उतर चुके हैं। बेशक हमें अपनी अस्मिता को गिरवी रखकर हजार पांच हजार मिले शायद हम उसी में खुश हो जाते हैंं। लेकिन हम यानी एकल नहीं होते। बल्कि हम में मां-बाप, पत्नी, बच्चे भी होते हैं। हम अकेले तो कुत्ता बन सकते हैं। अपने बॉस या मालिक की चिरौरी कर सकते हैं। लेकिन घर वालों को यह नागवार गुजर सकता है। यही हुआ है सूई धागा फिल्म में। पति को कुत्ता बनना। मसखरे कर मालिक को दिखाना आदि उस एक व्यक्ति के लिए कोई खास मायने नहीं रखा लेकिन पत्नी और मां-बाप को यह नापसंद रहा। पत्नी से जतला भी दिया। यह एक टर्निंग प्वांइंट है। जहां एक बेइज्जत को सहने को पीछे छोड़ अपनी दुकान लगाने य कह लें सड़क पर सिलाई कटाई करने को ठानना कोई आसान निर्णन नहीं था।

दूसरी टर्निंग प्वांइंट तब आता है जब एक साधारण से व्यक्ति के आइडिया एवं कौशल का नाजायज फायदा उठाया जाता है। एक बड़ी कंपनी एवं कंपनी के घाघ लोग कमतर साबित कर दूसरे के कर्म को नकार कर सड़क पर ला देते हैं। किन्तु सपने देखना और पूरे होने के बीच एक लंबी लड़ाई है जिसे इस फिल्म में मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश की गई है।

एक साधारण व्यक्ति और समष्टि के संघर्ष को बड़े मंच और प्लेटफॉम पर पहचान मिली और सम्मान भी। सो एक बार को लगता है कि महज हार मान कर बैठ जाना हमें हमारे सपनां से दूर तो ले जा सकता है लेकिन खत्म नहीं कर सकता।

अंतोत्गत्वा जीत संघर्ष की होती है। सपने भी पूरे होते हैं। रास्ते के रोड़े यूं ही बीच राह में पड़े रह जाते हैं। हम चलने वाले आगे निकल जाया करते हैं।

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