Monday, October 1, 2018

मी टू यौन शोषण का शिकार


कौशलेंद्र प्रपन्न
मी टू हैश टैग लगा कर अपनी कहानी कहने का इन दिनों एक फैशन सा हो गया है। हालांकि ऐसी कहानियां होती बड़ी दर्दीली हैं। जो इससे गुजरा होता है उसका दर्द वही समझ और महसूस सकता है। वह चाहे बचपन में भोगा हो या फिर बड़े होने के बाद। घर में ऐसी घटना हुई हो या फिर कॉलेज में। कॉलेज के बाद जॉब करने के दौरान ऐसे हादसों से गुजरना हुआ हो आदि। ऐसी घटनाओं से जो निकल कर बाहर आ पाएं। ख्ुद को संभाल पाए वो तो तारीफ के काबिल हैं ही साथ ही अपनी दर्दनाक घटना को एक बड़े मंच पर स्वीकार करना माद्दे की बात होती है। हर कोई अपने यौनशोषण की घटना को न तो स्वीकार करता है और न ही बड़े मंचों पर कहने की ताकत रखता है। यह दरअसल अतीत में घटित घटना को याद करना वास्तव में पुरानी दर्दीले एहसास से गुजरना ही है।
हिन्दी साहित्य हो या अन्य भारतीय साहित्य की विधाएं कथा-कहानी एवं उपन्यास आदि इस मसले को शिद्दत से बतौर विषय चुने हैं। इस कहानियों व उपन्यासों में पात्रों के चुनाव और उनके साथ बरताव बेहद संजीदा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर फिल्मों में भी इस विषय को गंभीरता से उठाया गया है। मसलन मॉनसून बेडिंग, चांदनी बार आदि। इन फिल्मों में बाल यौनशोषण को संजीदगी के साथ उठाया गया है। समाज में विभिन्न किस्म के पात्र वैसे ही उपलब्ध हैं जैसे कथा कहानियों में हुआ करते हैं। ज़रूरत न केवल जागरूकता की है बल्कि ऐसे मसलों के प्रति आवाज उठाने की भी है। यदि हम चुप बैठ जाते हैं तो कहीं न कहीं ऐसे मनोवृत्ति वालों को बढ़ावा ही देते हैं।
इन दिनों पद्मा लक्ष्मी ने अपने बचपन की घटित घटना को मीडिया के सामने स्वीकार किया। उसने स्वीकार किया कि कैसे उसके पापा के दोस्त ने उसके साथ अश्लील बरताव किए। कहां कहां नहीं छूए। जहां छूना या स्पर्श करना वर्जित है उन स्थानों को उत्तेजित किया। पिछले दिनों एक अंग्रेजी अख़बार ने पद्मा लक्ष्मी की अतीतीय दर्दभरी घटना को प्रमुखता से अपने यहा स्थान दिया। पद्मा लक्ष्मी बताते चलें कि ये सलमान रूशदी की पत्नी रही हैं और वैश्विक स्तर पर अपनी अलग पहचान के लिए जानी भी जाती हैं। इधर इनकी कहानी आई उधर भारतीय फिल्म जगत की एक और अदाकारा की कहानी बाहर आई। उन्होंने स्वीकार किया कि उनके साथ यही कोई दस साल पहले नाना पाटेकर ने सही बरताव नहीं किया था। मानसिक और शारीरिक तौर पर तथाकथित शोषण किया गया। यही वजह है कि वो भारतीय फिल्म जगत को अलविदा कह गईं। इस ख़बर के उद्घाटन के बाद तर्क-प्रतितर्क, पक्ष प्रतिपक्ष के जवाब भी मीडिया में आने लगे। जो भी हो दस साल पहले घटित घटना को भूलने व बिसुराने की बजाए आज उन्हें ताजा करना क्या प्रासंगिक हैं? क्या दुबारा उसी मनोदशा को जीना उचित है? मनोविज्ञान में कहा जाता है कि अतीतीय दुखद घटना को जितना याद किया जाए वह उतना ही दुखदायी होता है। बेहतर है कि दुखद घटनाओं को अतीत में छोड़ दिया जाए।
यह एक मानवीय संवेदना है कि हम अकसर स्मृतियों जीया करते हैं। स्मृतियां यानी अतीत की यादों में अपना काफी समय जाया किया करते हैं। उन्हीं घटनाओं में हम सूख के एहसास से भर उठते हैं। जबकि वह हमारा निजी अनुभव होता है। संभव है वह हम किसी और से साझा भी न करना चाहें। लेकिन हम इसलिए साझा किया करते हैं क्योंकि हमें कई बार गर्व का एहसास होता है। कई बार अपनी शेखी बघारने का पल लगता है। वैसे माना जाता है कि अतीत में जाना कई बार जोख़िम भरा होता है। हम अतीत में चले तो जाते हैं लेकिन लौटना हमें नहीं आता। हम अतीत से मार्गदर्शन व सीख हासिल करने की बजाए वहीं उन्हीं घटनाओं में अटक जाते हैं। अतीत की संवेदना हमें कहीं दुखद कर जाता है।
 

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