Wednesday, September 12, 2018

बेचैन हैं मगर क्यों



कौशलेंद्र प्रपन्न
हम इंसानों की भी अजीब कहानी है। हम क्षण में खुश हो जाते हैं और पल में नाखुश। शायद अंदर से निराशा से भर उठते हैं। इस निराशा के कारण कई बार काफी स्पष्ट होते हैं। हम जानते हैं कि फलां की वजह से मन खिन्न है। फलां ने ऐसा क्यों बोल दिया। फलनी ने ऐसा बरताव क्यों किया आदि। लेकिन कई बार हमारा मन यूं ही न जाने क्यों उदास हो जाता है। जगजीत सिंह का गाया गज़ल याद आता है- ‘‘शाम से आंख में नमी सी है, फिर आज किसी की कमी सी है।’’
अगर कारण पता चल सके तो अपनी उदासी को दूर करने का प्रयास किया जाए। लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता। बल्कि अकसर ही हमें अपनी उदासी का सबब नहीं मालूम होता। कुछ कुछ मिला मिला सा कारण होता है। किसी के व्यवहार से उदास हो जाते हैं तो कई बार अपने ही वजहों से ।हम कई बार अपनी ही चाहतों को शायद पहचान नहीं पाते। कई बार ऐसा भी होता है कि हम अपनी सीमाओं को पहचाने बगैर कुछ ऐसे ख़ाब देखा करते हैं जिन्हें पूरा करने के लिए अतिरिक्त मेहनत की मांग होती है। जो हम नहीं दे पाते तो विफल होते, बिखरते सपनों की वजह से उदास हो जाया करते हैं। हमें ज़रूरत है अपनी मांगों और उम्मीदों को पहचानना और उन्हें पूरा करना। हर सपने हर किसी के पूरे न तो हुए हैं और न ही संभव ही है।
इस बात की भी पूरी संभावना है कि हमारे अंदर कई तरह की संवेदनाएं एक बार में ही बल्कि साथ साथ ही चल रही होती हैं। जिन्हें लेकर हम एक अंतर या कह लें फांक नहीं कर पाते और उदासी में डूबने लगते हैं। आज की भागम भाग वाली जिंदगी में तकरीबन हर कोई अकेला है, एकांगी है और अधूरा है। यह अधूरापन हम कई बार मॉल में जाकर भरते हैं। हंसी खिलंदड़ी कर के भूलाने की कोशिश करते हैं। मगर अंदर जो टूट रहा है उसे हम बचा नहीं पाते।
शोध बताते हैं कि आज दुनिया भर में अवसाद की गिरफ्त में हज़ारों नहीं बल्कि लाखों में लोग हैं। जिन्हें किसी न किसी किस्म का अवसाद है। अवसाद यानी एक प्रकार की निराशा, एकाकीपन, अकेलापन आदि। इन्हीं मनोदशाओं में हमें कई बार महसूस होता है हम भीड़ में भी कितने अकेले हैं। सब के होते हुए भी हमारा कोई भी नहीं।
बचाना होगा ऐसे मनोदशाओं से। हमें अपने अंदर की सृजनात्मकता को जगाने की आवश्यकता पड़ेगी। अंदर के हास्य को जगाना होगा और अपने एकाकीपन को इनसे दूर करने की कोशिश करनी होगी।

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