Thursday, September 27, 2018

कभी कभी यूं ही चुप बैठना


कौशलेंद्र प्रपन्न
हम कितना बोलते हैं। जितना बोलते हैं उस अनुपात में सुनते कम हैं। कई बार इतने बोलते हैं कि सुनने के सुख से वंचित रह जाते हैं। जो जितना ज्यादा बोलता है वह उतना ही सुनने की कला में कमजोर माना जाता है। कभी ख्ुद को अकेले में सुनने की कोशिश कीजिए हम तब अंदर की आवाज सुन पाते हैं। हालांकि सुनने के लिए खाली भी होना पड़ता है। खाली यानी पूरी तरह से बाहरी प्रभावों से अलग। किन्तु वही तो नहीं हो पाता। हम सुनने की बजाए सुनाने पर ज्यादा वक्त दिया करते हैं।
कभी किसी नदी के करीब या फिर किसी छोटी सी पुलिया पर बैठ कर शाम गुजारने का अपना ही अलग आनंद है। हालांकि अब न छोटी पुलिया रही और न महानगर में नदी। दोनों के ही स्वरूप बदल चकी हैं। नदी नाले में तब्दील हो चुकी है और पुलिया बड़े बड़े फ्लाईओवर में। जिसपर हजारों हजार गाड़ियां लगातार दिन रात गुजरा करती हैं। जिनके पास से पगडं़डी भी गायब हो चुकी हैं।
नदी के किनारे बैठ कर बस चुपचाप धार को देखना और धार के प्रवाह को महसूसना एक अलग किस्म का अनुभव है। कई बार लगता है क्या सुखद एहसास है बस मौन बिना कुछ बोले नदी को सुनना और देखना। जो हमसे पहले थी और शायद हमारे जाने के बाद भी वहीं रहा करेगी।

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