Thursday, September 20, 2018

मन आहत हो तो क्या कीजै



कौशलेंद्र प्रपन्न
मन न हुआ गोया खिलौना हो गया। जब मन भर जाए तो तोड़ दीजिए। फोड़ दीजिए। नया खिलौना लेकर आएंगे। आजकल हमारा दिल और दिमाग हमारे हाथ में नहीं है। बल्कि हमारा मन कहीं और किसी और से संचालित होता है। एक कहानी बचपन में सुनी थी। वह कहानी कुछ यूं है- एक राजकुमारी थी। बहुत सुंदर। लेकिन उसकी आत्मा दूर जंगल में किसी पेड़ पर रहने वाले सुग्गा में बसा करता था। उधर सुग्गा के पांव मरोड़ो तो इधर राजकुमारी के पांव में ऐठन महसूस होती थी। कहानी भी दिलचस्प है। वह राजकुमारी कैसे जिं़दा थी। उसकी आत्मा बाहर रहा करती थी।
आजकल हमारा मन और आत्मा हमारे पास नहीं रहा करता। उस राजकुमारी के तर्ज़ पर हमारी आत्मा और आत्म विश्वास, हमारी प्रतिष्ठा और नाक दूसरों के हाथों में हुआ करती हैं। वह कोई और नहीं बल्कि सोशल मीडिया है। इस सोशल मीडिया में हमारी आत्मा और आत्म सम्मान बसा करता है। उधर सोशल मीडिया पर किसी ने आपको ब्लॉक किया नहीं, कुछ ग़लत कमेंट किया नहीं, या इग्नोर किया नहीं कि इधर हमारे पेट में दर्द उठने लगता है। रातों की नींद उड़ जाती है। कैसा है न यह सोशल मीडिया भी।
हमारे ही बस में हमारा मन न रहा। कोई दूर बैठा हमारे मन को संचालित किया करता है। हमारी आत्मा और प्रतिष्ठा को तय किया करता है। हम कब कैसे और कहां आहत हो जाएं इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। आज की तारीख़ में जो भी सोशल मीडिया में सक्रिय हैं उनसे कभी अकेले में पूछ लें, कैसे हैं? क्या चल रहा है? इसका जवाब आपको ठगा सा कर देगा। कहेंगे, आप फेसबुक पर नहीं हैं? देखा नहीं मेरे पोस्ट पर कितने कमेंट आए। मैंने फलां फलां को ब्लॉक कर दिया। बड़े नवाब बना करते थे। आपक वाट्सएप पर तो होंगे? होंगे न? मैं आपका अपनी ताजा कविता भेजता हूं। पढ़िएगा ज़रूर। इसपर फल्नीं ने क्या खूब कमेंट किया है। इसे मैंने वहां वहां जहां तहां हर जगह गाया और पाठ किया है। आप भी सोचेंगे क्या पूछा बैठा।
गोया कई बार लगता है कि हमारी जिंदगी इस सोशल मीडिया ने कैसे गडपनारायण कर लिया। हाल समाचार पूछो तो इनके पास कमेंट और लाइक के अलावा और कुछ कहने को बचा नहीं। जब हम सोशल मीडिया पर इतने सक्रिय होंगे तो सच में समाज के संवाद की परंपरा में पिछड़ते ही जाएंगे। कभी भी कहीं भी जाएं सबके हाथ में एक टूनटूना होता है। उसे ही बैठकर, सो कर, चलते हुए बजाते रहते हैं। कुछ भी न आया हो लेकिन मजाल है आप उसे टटोलने से बच जाएं। कभी कभी तो ऐसा भी महसूस होता है कि हम जितनी दफा अपनी सांसों को महसूस नहीं करते उससे कहीं ज़्यादा एफबी और अन्य सोशल मीडिया के कान में अंगुली किया करते हैं। गोया वहीं से हमें सांसें मिला करती हैं। शायद वह खिड़की हैं जहां से ताज़ी हवाएं आया करती हैं। कभी इस झरोखों से बाहर भी झांक आईए जनाब जहां और भी हैं। वहां आपको सच्चे मित्र मिला करेंगे।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...