Monday, September 17, 2018

रिश्तों में ऊष्मा बचाएं



कौशलेंद्र प्रपन्न
रिश्ते अपने पांवों से नहीं चलते। चल तो नहीं सकते। रिश्तों को चलने के लिए उसकी स्वयं की ताकत और ऊर्जा चाहिए होता है। इसके बिना रिश्ते बीच सफ़र में ही दम तोड़ देते हैं। हालांकि रिश्तों के दरमियान कई तरह के कई किस्म के उतार चढ़ाव भी आते हैं। यदि रिश्तों में जीवट उत्कंडा हो तो वह सूखे भी प्राण वायु खींच लिया करते हैं। यही कारण है कि कुछ रिश्ते सालों साल, बरस दर बरस जिं़दा रहती हैं। कितने भी सालों के बाद मिलो तो ज़रा भी फासलों का एहसास नहीं होता। गोया कल की ही तो बात है। कल ही तो घंटों बातें की थीं। वहीं कुछ रिश्ते ऐसे भी बन या बंध जाती हैं जिसमें लगातार घुटन सी महसूस होती है। लगता है क्या ही अच्छा हो कि तुरंत मिलना खत्म हो जाए और हम इस रिश्ते से बाहर हो जाएं। जीवन में हम ऐसे लाखों न सही कम से कम सौ से ज़्यादा रिश्तों में आते हैं जहां हमें कई बार मजबूरन रहना पड़ता है। जिन्हें निभाना बोझ लगता है वहीं कुछ तो रिश्ते ऐसे होते हैं जिनमें बेशक हम सालों साल न मिलें लेकिन उस रिश्ते की गरमाहट हम दूर रह कर भी महसूसा करते हैं। इन्हीं रिश्तों के बदौलत हम कई बार सांसें लेते हैं वरना मर न जाते।
रिश्ते मायने वे तमाम लोग शामिल हैं जिन्हें हम कभी न कभी यात्रा में मिले। कहीं काम करते हुए मिले। कभी यूं ही भटकते हुए मिले लेकिन सच्चे अर्थां में मिले। उनसे बिछुड़ने की टीस सदा हमारे साथ रहती है। हम अकसर उन्हें याद किया करते हैं जब भी कोई मिलती जुलती घटना या बातें चला करती हैं। तब तब वो लोग याद आया करते हैं। जब भी हम उन्हें याद करते हैं तब पूरे संदर्भों में याद किया करते हैं। ख़ासकर जो अब हमारे बीच नहीं रहे उन्हें तो बेहद याद किया करते हैं। उनके बोलने, उठने बैठने, प्रतिक्रिया करने के ख़ास अंदाज़ में। कोई कैसे ऐसे व्यक्ति को भूल सकता है जिससे बहुत कुछ सीखने, गुनने को मिला। मुझे अकसर लाल कृष्ण राव, कमल कांत बुद्धकर, प्रो ओ पी मिश्रा याद आते हैं जिन्होंने लिखना सीखाया। एल एन राव नहीं होते तो शायद लेखन की दुनिया में मेरा होना ही मुकम्म्ल नहीं होता। वहीं प्रो. एस एस भगत नहीं होते तो वेद पाठ की तालीम अधूरी ही रह जाती। ऐसे ही हमारे जीवन को आकार देने वाले प्राध्यापक, पत्रकार, लेखक, मित्र आदि होते हैं जिनसे हम कई बार न चाहते हुए भी सीख लिया करते हैं।
जहां तक रिश्तों में आने वाले मोड़ मुंहानों की बात करें तो रोज़ ही कोई न कोई हमें मिला करते हैं। जिनसे हम करीबीयत महसूसा करते हैं। बेशक परो़क्ष ही सही हमारा एक रागात्मक रिश्ता जुड़ जाता है। कई बार हम इन्हें कोई स्थाई या स्थापित नाम कम और छोटे पड़ते हैं। लेकिन हमारे इसी जीवन में ऐसे भी रिश्तों के डोर मिला करते हैं जिन्हें बगैर किसी नाम से जुड़े होते हैंं। ज़रूरी तो नहीं कि हम रिश्ते रोज़ाना ही जीया करें, मिला करें। ज़रूरी तो यह भी नहीं कि जिनसे जुड़े हैं उनसे रोज़ाना ही मुलाकात हो। लेकिन यह ज़रूरी है कि जिनसे भी स्नेह के धागे से बंधे हैं उन्हें जब भी मिलें। जहां भी बातें हों ज़रा भी एहसास न हो कि कितने दिनों बाद मिले। मिलने के बीच एक दूरी साफ न झलके। यह तभी संभव है जब हम मिलने में शिकायातों का पुलिंदा न खोलकर बैठ जाएं। महज फोन नहीं करते, मिलते नहीं, बड़े लोग हो गए हो आदि आदि। क्योंकि हर किसी के पास कहने और शिकायते करने के अपने अपने तर्क मौजूद हुआ करते हैं। जब शिकायत से मुलाकात या बात शुरू होती है तब कहीं न कहीं स्पष्ट और साफ दिल बातचीत संभव नहीं हो पाता।
रिश्तों को टूटने से बचाने के लिए ज़रूरी है कि दोनों ही प़़़क्ष अपनी अपनी प्राथमिकताएं और लगाव को जिं़दा रखें। सिर्फ रिश्ते एक तरफे नहीं चला करते। बल्कि यदि रिश्ते में गरमाहट एक महसूस कर रहा है तो वह भी दूसरे से ऐसी या इसी किस्म की बेचैनी महसूस करे। बल्कि उसे प्रकट करने का माद्दा भी रखता हो। तब मजाल है रिश्ते घिस जाएं या रिश्तों के दरमियान ठंढापन आ जाए।

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