Monday, November 23, 2015

किताबें रिटायर नहीं होतीं-


किताबें रिटायर नहीं होतीं-
हमारे बीच से किसी दिन यूं ही गुम हो जाती हैं,
इनके हर शब्द हमारे सामने पुकारती हैं,
पढ़ो तो जी,
ज़रा सुन तो लो,
लेकिन हम बहरे की तरह सुन नहीं पाते।
किताबें बेटी की तरह-
एक दिन लेखक का घर छोड़,
पाठक के घर चली जाती हैं,
सज संवर कर,
आलोचक दुलराता, पुचकारता,
तो कभी दुत्कारता रहता,
किताबें पाठक की होती हैं।
एक बार जन्मने के बाद-
किताबें अपनी जिंदगी खुद जीती हैं
समीक्षा, आलोचना ख्ुाद सहती,
किसी लाइब्रेरी में सांस लेती,
करती हैं इंतजार कोई तो उसके घूंघट के पट खोले।
बड़ी दुर्भागी होती हैं वैसी किताबें-
जिन्हें नहीं मिल पाता दुल्हा,
कोई कोई तो ब्याह के बाद भी
प्यार के लिए तड़पती रहती हैं,
पन्ने तक नहीं पलटे जाते।

चचा मुशर्रफ

ये! चचा -
कभी वर्दी उतार कर सोते हैं,
तो सपने में कभी चांदनी चैक,
दिखता है कि नहीं और,
गली के मोड़ पर
चैरसिया पान भण्डार,
जहां से अम्मा के लिए जाता था,
पान, कसैली और कत्था।
ये! चचा -
आगरा में जब आपकी बात हो रही थी,
उस वक्त देश-विदेश के तमाम कान,
लगे थे इन्तजार में,
कुछ सुखद समाचार के लिए,
कि जैसे,
पड़ोस की गईया
या बकरिया के बच्चों को देखने की होती है।
ये! चचा -
जब घर ‘पाकिस्तान’ से,
निकल रहे थे अपने ननिहाल ‘भारत’ से,
तो अम्मा ने,
दही और गुड़ खिलाए थे कि नहीं,
माथे पर तिलक तो नहीं था।
ये! चचा -
जन्मस्थान भी देखने गए,
उस बुढि़या से मिले,
जिसने गोद में खेलाया था,
अम्मा कि  याद ताजी हुई कि नहीं।
ये! चचा -
पिछले दिनों
आप पर जान लेवा हमला हुआ,
दिल धक्क से रह गया,
ठहरे तो अपन के चचा जान।
ये! चचा -
चेहरे की मुस्कान,
अपनी माटी की लगती है,
देखे हैं आपकी आँखों में
थथमे आंसू के बूंद।
ये! चचा -
आपकी आंखों में,
चचा जुम्मन नजर आते हैं,
नहीं देख पाएगा देश वही दहशत,
अपने पड़ोसी के माथे पर।
ये! चचा -
अगर हादशे में कुछ हो जाता तो -
बातचीत की बंधी
आस भी टल जाती,
मायूस हो जाता,
नये साल का सवेरा।


बाईपास

जीवन की -
बाई पास पर सड़क पर,
भाग रहीं हैं,
अनुभवों,
घटनाओं और,
सुखद बातों की गाडि़याँ।
कब, कौन -
इस पार से
उस पार चला जाए,
हो सकता है,
कुचला जाए,
मगर उफ्फ तक न करें।
क्योंकि -
संवेदना का ट्रैफिक पुलिस,
अब नहीं रहता हमारे आगे,
चेतना की लालबत्ती भी,
कब की बुझ चुकी है।
छुट्टी की घंटी सुन -
बस्ता टांगे
भाग रहे हैं सभी,
जीवन की बाईपास सड़क पर,
ताबड तोड़,
घर की ओर।
मगर कौन बैठा है -
इन्तजार में,
किसको खलती है कमी,
क्योंकि,
सभी भाग रहे हैं,
जीवन की बाईपास सड़क पर
सरपट यूं ही।


बंटवारा

चलो ऐसा ही करें -
खड़ी कर दें,
एक दीवार,
आंगन की छाती पर।
बांट दें,
सुबह की ध्ूाप को,
दो फांक,
बड़ा हिस्सा इस तरफ,
छोटा उस तरफ।
ग़र ऐसा न हो सके -
तो छिनगा दें,
नल के पानी को,
या फिर,
जांता में दरते गेहूँ,
ढेंकी पर उछलते मां के पांव।
सांस के दरवाजे पर -
टंगे पिता के नाम की तख़्ती,
आरी से चीर दें,
क्योंकि स्मृतियों पर,
हक बढ़कू का भी है।
अलगनी पर टंगी
पिता की धोती
को भी फांड़ दें।
चलो -
गिरा दें देवस्थान की दीवार,
और खड़ी कर दें,
दुकानों की चमचमाती
कोठरियाँ।

मत जा

अच्छी हैं -
तुम्हारी पहाड़ी बोली,
और पगडंडि़याँ,
जिस पर चल कर तुम्हारी उम्र जवान हुई।
अच्छी आवाज में गाते थे -
तुम्हारे पिता,
ढोल पर थाप देती अंगुलियाँ शोभती थीं
इन घाटियों के उस पार तक गूँजती थी।
पर क्या पता था -
एक गवैया जो चल पड़ा था,
पहाड़ी को छोड़, शहर की ओर।
कि एक दिन -
चिट्ठी देख बरस पड़ी थी,
बूढ़ी माँ की आँखें,
रूद्ध गले में फंसे शब्द को खखार कर,
कहा था पिता ने कि -
पहाड़ी के उस पार मत जा,
पर माना नहीं।
गाता तो था -
नए रूप, नई शैली उतर चुकी थी
उसके गंवई कंठ में,
भूल चुका,
कलकल पहाड़ी,
सेमल की सर सराहट,
गालों की दमक सूख चुकी थी।

 तुम्हीं को गुनगुनाता हूँ

तुम्हीं को गुनगुनाता हूँ -
सुबह की पूजा में,
गाता हूँ गान अर्चन में लीन,
ध्यानस्त भी होता हूँ तुम्हीं में।
माँ की लोरी में -
जीवित है तुम्हारी हंसी
रहता हूँ सुनने को व्याकुल
पकड़ माँ को करता हूँ जिद्द
घोल दें वो मध्ुारता मिठास
कोनों में जो बतियाने में कभी....।
तुम्हीं में घूल कर पाता हूँ -
खोया हुआ अर्थ जीवन का,
बिलबिलाता छूट गया जो प्यार
ढूढ़ता हूँ छाया
जिसमें पलती थी कितनी ही....।
तुम्हीं को गुनगुनाता हूँ -
वेद की ऋचाओं में,
ढूँढ़ता हूँ अर्थ,
जो गूढ रहा जीवन में,
झम-झम, झीम-झीम
बरसते बरसात की बूंदों में
वो हंसी तलाशता हूँ
जो हिमवत जम गया था।


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