Monday, November 23, 2015

भाषा की उष्मा और स्कूली किताबें



कौशलेंद्र प्रपन्न
भाषा की उष्मा हमें ताउम्र मिलती रहती है। चाहे हमारे बीच कितनी भी तकनीकि चादर फैल जाए किन्तु भाषा की उष्मा हमसे दूर नहीं जा सकती। बच्चों में भाषा की उष्मा जितनी मात्रा में मिलनी चाहिए व मिलती है व पर्याप्त नहीं है। क्योंकि एक ओर भाषा की उष्मा पहुंचाने वाले माध्यम पाठ्यपुस्तक, पाठ्यक्रम इसे पूरी शिद्दत से नहीं पहुंचाते दूसरी ओर यदि पहंुचती भी है तो बीच के दूसरे घटक अध्यापक/अध्यापिकाएं बिचैलिए की सही भूमिका नहीं निभाते। यही वजह है कि भाषा की तमाम छटाएं बच्चों की पहंुच से खासे दूर चली जाती हैं। यह तो कई शैक्षिक अध्ययन रिपोर्टों से तथ्य सामने आ चुकी है कि भाषा के अध्ययन अध्यापन के जो तरीके अपनाए जाते हैं वहीं कहीं न कहीं चूक रह जाती है। वैसे भाषा अध्यापन के पीछे के उद्देश्यों को कमतर नहीं कह सकते। साथ ही पाठ्यक्रम के लिए मिलने वाले दिशानिर्देश भी इस ओर मुकम्मल रोशनी दिखाते हैं, लेकिन जब पाठ्यपुस्तकों का निर्माण होता है तब कहीं गड़बड़ी हो जाती है। विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि मातृभाषा और स्कूल की भाषा में संबंध नहीं बना पाने की वजह से अनेक बच्चे स्कूल से पलायन कर जाते हैं। ‘‘12 फीसदी से अधिक बच्चे सीखने में इसलिए भारी कठिनाई झेलते हैं क्यांेकि उन्हें प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा के माध्यम से नहीं दी जाती।’’ ‘झिंगन 2005’ गौरतलब है कि बच्चे स्कूल आने से पहले मातृभाषा का अच्छे से उपयोग करते हैं। इसलिए स्कूल में बच्चे की भाषायी क्षमताओं का विकास विभिन्न माध्यमांे से होना चाहिए। ऐसी गतिविधियां होनी चाहिए जो मातृभाषा एवं स्कूली भाषा में तालमेल बैठा सकें। यहां इसकी चर्चा अप्रासंगिक नहीं होगी कि नेशनल करिकूलम फ्रेमवर्क 2005 ‘एनसीएफ2005’ भाषा शिक्षण को लेकर मानती है कि साहित्य भी बच्चों की रचनाशीलता को बढ़ा सकता है। कोई कहानी, कविता या गीत सुनकर बच्चे भी कुछ लिखने की दिशा में प्रवृत्त हो सकते हैं। उनको इसके लिए भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि अलग अलग रचनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यमांे को आपस में मिलाएं। ‘एनसीएफ2005, पेज 43’ रचनात्मक लेखन स्कूली शिक्षा में एक महत्वपूर्ण भाषायी उद्देश्य है। यदि बच्चों को उसकी अपनी भाषा में व्यक्त करने के अवसर दिए जाएं तो इससे न केवल उसकी रचनाशीलता बढ़ेगी बल्कि भावनात्मक स्तर पर भी स्कूल से अधिक जुड़ाव होगा।
प्रो यशपाल समिति ने 1992 में अपनी संस्तुति में कहा था कि ‘‘ भाषा की पाठ्यपुस्तकों में स्थानीय एवं बोलचाल के मुहावरों को उचति स्थान दिया जाए। भावी पाठ्यपुस्तकों में बच्चों की जीवन अनुभूतियों, काल्पनिक कहानियों, कविताओं तथा देश के विभिन्न भागों के सामान्य जन-जीवन को प्रतिबिंबित करने वाली कहानियों को यथेष्ट रूप में निरूपित किया जाए। पांडित्यपूर्ण तथा कठिन और बोझिल भाषा का प्रयोग न किया जाए।’’ इन संस्तुतियों की रोशनी में यदि स्कूली पाठ्य पुस्तकों को खंघाले तो स्थिति कुछ ज्यादा संतोष नहीं देतीं। क्योंकि कक्षा में बहुभाषिकता का सवाल हो या फिर मातृभाषा और स्कूली भाषा के  बीच रिश्ता बनाने की बता हो। क्योंकि इन सब के लिए न तो ऐसी कोई गतिविधि है जो बच्चों की रचनाशीलता को उभार सके और न बच्चों को अपनी भाषा में अपने आपको व्यक्त करने का अवसर ही प्रदान करती है। एक नजर दिल्ली के कक्षा 9 वीं की हिन्दी की पाठ्य पुस्तक क्षितिज के आमुख पर डालें, क्षितिज भाग एक के ‘यह पुस्तक’ शीर्षक के तहत उक्त उद्देश्यों पर नजर डालना लाजमी है,‘‘ इस संकलन की रचनाएं जहां एक ओर विद्यार्थियों में साहित्यिक संवेदना पैदा करने वाली है तो दूसरी ओर उन्हें जीवन के विविध संदर्भों से जोड़ती हैं। इस बात पर भी ध्यान रखा गया है कि विद्यार्थी साहित्य की विविध विधाओं  से परिचित हो सकें।’ वहीं दूसरी ओर इसी पाठ में आगे कहा गया है कि क्योंकर गद्य बच्चों को पढ़ाया जाना चाहिए और कैसे पढ़ाया जाए। बतौर ‘यह पुस्तक’ की स्थापनाएं, विद्यार्थी अधिक से अधिक विधाओं और विविध गद्य शैलियों का आस्वाद कर सकें। क्षितिज में शामिल गद्य के विभिन्न विधाओं पर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि उद्देश्य कितना व्यापक है। कहानी, व्यंग्य, निबंध, डायरी, आत्महत्या आदि उपांगों की छटाएं देखी जा सकती हैं। इन रचनाओं के पीछे शिक्षा के कौन से मकसद शामिल हैं उसकी झलक भी हमें मिलती है। रचनाएं जीवन की बृहत्तर परिधि से जुड़ी हुई हों। वे एक ओर तो साहित्यिक विधाओं का प्रतिनिधित्व कर रही हों दूसरी ओर समाज के विभिन्न वर्गों का भी। तो इन्हीं पंक्तियों में गद्य पढ़ाने के पीछे के उद्देश्य छुपे हुए हैं। इस पाठ्यपुस्तक के निर्माण में जेंड़र, धर्म, भाषा, संस्कृति और गद्य की विविध धाराओं को बच्चों को परिचय कराने की कोशिश की गई है।
भाषा ज्ञान के सृजन और सृजनात्मकता का एक महत्वपूर्ण साधन है। भाषा सम्प्रेषण, विश्लेषण,
कल्पना आदि समस्त मानसिक प्रक्रियाओं के माध्यम से सीखने सिखाने का एक तरीका है। भाषा समाज
और सत्ता में समानताओं और असमानताओं को प्रदर्शित करते हुए समाज, सत्ता, भूगोल, और संस्कृति
के माध्यम से उसकी अस्मिता को प्रकट करती है।
बहुभाषिकता हर समाज की विशेषता होती है जो भाषा शिक्षण में बहुत मददगार होती है।
बहुभाषा का कक्षा शिक्षण में प्रयोग करने से विद्यार्थी व शिक्षकों के बीच दूरी कम होती है तथा
आत्मीयता जाग्रत होती है। विद्यार्थी अपनी भाषा का पाठ्यक्रम में स्थान देखकर अस्मिता (पहचान) की
स्वीकृति अनुभव करता है साथ ही दूसरी भाषाओं के प्रति संवेदनशील होकर भाषाई संरचना के प्रति
जागरूक होता है।
भाषा किसी समाज की अनेक उपलब्धियों, संघर्षों और लक्ष्यों को प्रकट करती है। इस अर्थ में
वह सामाजिक यात्रा का आइना है। समाज में अनेक तरह के भेद तथा असमानताएँ भी पाई जाती हैं।
इनमें से अनेक असमानताओं को विभिन्न सामाजिक समूह सायास तौर पर बनाए रखते हैं। इसी कारण
भाषा में वर्चस्व तथा प्रतिरोध के स्वर बराबर सुनाई पड़ते हैं। समाज कोई सजातीय समूह नहीं है।
इसलिए भाषा में भी सजातीयता का तत्त्व सर्वत्र नहीं मिलता। प्रत्येक भाषा की अपनी अस्मिता भी होती है। भाषा के संदर्भ में अस्मिता का अर्थ है - भाषा बोलने वालों की अपनी पहचान। इस पहचान से जुडे़ कुछ मसलों को समझना ज़रूरी है। मनुष्य की रचनात्मकता की अद्भुत उपलब्धि भाषा विभिन्न स्मृतियों, कौशलों और कल्पनाओं को सहेजती हुई अपने रूप का निखार और विस्तार करती है। यही कारण है कि विभिन्न सामाजिक विशेषताओं - भिन्नताओं और अकुलाहटों की आहटें भी हमें भाषा की चाल में सुनाई-दिखाई देती हैं। इस अर्थ में वह अपने समाज की पहचानों का बखूबी निर्वहन करती है। भाषायी अस्मिता किसी परिवार, समाज या राष्ट्र की आशा- आकांक्षा, हताशा - निराशा, जय-पराजय और सपनों को प्रकट करते हुए अपनी पहचान कायम करती है। यानी भाषा और अस्मिता में अटूट संबंध है।
इस बात से किसे गुरेज होगा कि भाषा से हमारा साबका ताउम्र रहता है। यही वजह है कि भाषा हमारे साथ ताउम्र बनी रहती है। लेकिन इधर के कुछ सालों मंे एक नए स्वर उभरे हैं कि भाष मर रही है, भाषा अप्रासंगिक हो रही है और आधुनिक तकनीक आ जाने से भाषाएं खत्म हो जाएंगी। ख़ासकर इंटरनेट के आगमन से मुद्रित साहित्य का अंत होना तय है। यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि मुद्रित साहित्य न तो खत्म होंगी और न हमारे बीच कभी भी अचानक लुप्त होंगी। क्योंकि इंटरनेट की दुनिया भी भाषा पर ही टिकी है। यह अलग बात है कि भाषा तकनीक की है या फिर इंग्लिश की। किन्तु भाषाएं तो रहेंगी ही। जब तक हमारी संवेदनाएं रहेंगी तब तक भाषा का साथ नहीं छूट सकता। प्रसिद्ध उपन्यासकार एवं लेखक गोविंद सिंह से लालित्य ललित की बातचीत में उन्होंने कहा था कि भाषाएं चाहे इंटरनेट का कितना भी प्रभाव बढ़े लेकिन भाषाएं और साहित्य दोनांे ही हमारे बीच रहेंगी। क्योंकि भाषा के साथ हमारी संवेदना और संबंध बेहद लंबा रहा है।
भाषा की कक्षा और भाषा की उष्मा हमारे बीच तब तक बरकरार रहेंगी जब तक भाषा और उसकी उष्मा हमें उर्जा देती रहेंगी। आज भी पूरे विश्व में लाखों की तदाद में साहित्य की रचनाएं और उनका प्रकाशन हो रहा है। यह साबित करता है कि भाषाएं और उसका साहित्य अभी भी अप्रासंगिक नहीं हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो भाषाएं न केवल हमें अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में मिली हैं बल्कि भाषा के जरिए हम खुद को जोड़ते भी रहे हैं।


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