Monday, November 9, 2015

साहित्य, समाज और बच्चे

साहित्य, समाज और बच्चे के त्रिआयामी समीकरण को भी समझने की आवश्यकता है। क्योंकि भाषा हमारे सामने जिन रूपों में आती है उसके उस स्वरूप को भी दृष्टिपथ में रखना होगा। बोलचाल से लेकर लिखने-पढ़ने एवं सृजन के माध्यम के तौर पर भाषा हमारा साथ निभाती है। भाषा है तो साहित्य है। साहित्य है तो पाठक होंगे और होंगे भाषा को बरतने वाले भी। ऐसा नहीं हो सकता कि भाषा है पर साहित्य नहीं व साहित्य है पर पाठक नहीं। भाषा, साहित्य, समाज और बच्चे जो आगे चल कर साहित्य सृजन करते हैं व भाषा को जीवन में अंगीकृत करते हैं उन्हें दरकिनार कर के नहीं चल सकते। दुनिया की तमाम भाषाएं अपने समाज और संस्कृति की वाहक रही हैं। नदीवत् प्रवहमान रही भाषा अपने साथ समाज की परंपराएं, संस्कृतियां, रीति रिवाज आदि को अपने साथ लेकर चलती और अग्रसारित भी करती रही हैं। यह अगल विमर्श का विषय है कि वही भाषा आज हमारे पास से सरकती हुई हाशिए पर खड़ी है। भाषा की इस अवस्था के पीछे भाषा के इस्तेमाल करने वालों की मनसा, भावात्मक लगाव एवं वर्तमान की चुनौतियों के मद्दे नजर भाषा के अधुनातन स्वरूप को स्वीकारने के कारणों को भी समझना होगा। हमें यह भी उदारता के साथ स्वीकारना होगा कि वर्तमान समय की मांग के लिए क्या हमारी भाषा हमें तैयार करने में कोई भूमिका निभा रही है? यदि नहीं तो फिर भाषा के वृहत्तर लक्ष्य को हमें दुबारा से परिभाषित और रद्दो बदल करना होगा। बच्चों को भाषा क्यों पढ़ाई जाएं? कौन सी भाषा पढ़ाई जाए? किस रूप में भाषा से बच्चों को रू ब रू कराया जाए आदि ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर हम वयस्कों को देना ही होगा। घर से शुरू हुई भाषा की यात्रा बच्चों को स्कूल, काॅलेज और फिर असल जि़ंदगी को कैसे प्रभावित करती है इसपर एक नजर डालना भी प्रासंगिक होगा।
शिक्षा,बच्चे और शिक्षक के इस अंतर्संबंध को और स्पष्टतौर पर समझे बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। शिक्षक कौन होता है? शिक्षक की भूमिका क्या होती है? और शिक्षक के अपने वे कौन से गुण व कौशल होते हैं जिनकी वजह से वह शिक्षक बनता है आदि बिंदुओं को समझते चलें। दरअसल शिक्षक बच्चों और समाज व दुनिया के मध्य वह व्याख्याकार की भूमिका निभाता है जो बच्चों को समाज में समायोजन बनाने और अपने सर्वांगीण विकास में शिक्षक की मदद लेकर एक सफल इंसान बनने तक का सफर तय करता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि शिक्षकों को इस तरह की भूमिकाओं से वंचित किया गया है। वह इस रूप मंे कि आज की तारीख में ही नहीं बल्कि औपनिवेशिक काल से ही उसे महज पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यचर्याओं को पूरा कराने वाला मजदूर भर बना दिया गया। शिक्षा के वृहद् उद्देश्यों पर गौर करें तो वह था बच्चे का सर्वांगीण विकास। इसमें आत्मिक, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक आदि था। श्री अरविंद ने अपनी पुस्तक लाइफ डिवाइन में लिखते हैं नथिंग कैन बि टौट। शिक्षक सिर्फ बच्चों का मददगार हो सकता है।

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