Friday, November 6, 2015

राजस्थान पुस्तकों मंे सेंधमारी



कौशलेंद्र प्रपन्न
अच्छा हुआ प्रेमचंद आपने हिन्दी में लिखना शुरू कर दिया था। अच्छा ही हुआ तुलसी ने उर्दू में नहीं लिखा। यह भी अच्छा ही हुआ कि सूर,मीरा, नानक आदि ने कम से कम उर्दू में हाथ नहीं आजमाया वरना आज उन्हें भी पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों से बाहर कर दिया जाता। यह कोई गल्प नहीं है। यह कहानी भी नहीं है। राजस्थान के पाठ्यक्रमों से उर्दू में लिखी कहानियों, कविताओं,शब्दों को बाहर निकालने का फरमान जारी हो चुका है। इस्मत चुगताई, सफ़दर हाशमी, जायसी आदि कवियों, लेखकों की रचनाओं से बच्चों को निज़ात दिलाने के लिए निर्देश दिए जा चुके हैं। राजस्थान शिक्षा समिति यह काम बड़ी ही साफगोई और दिलेरी से कर रही है। उस तर्क यह दिया जा रहा है कि बच्चों को उर्दू के शब्द पढ़ने,समझने में दिक्कत होती है। इसलिए कविताओं और कहानियों आदि से उर्दू के शब्दों को तो बाहर किया ही जाएगा साथ ही ऐसी रचनाओं और रचनाकारों को पाठ्यक्रमों से निकाल बाहर किया जाएगा। कितना अच्छा और आकदमिक तर्क है। क्योंकि शब्द उर्दू के हैं। क्योंकि बच्चों को समझ नहीं आएंगे इसलिए रचनाओं एवं रचनाकारों को निकाल दिया जाए। राजस्थान शिक्षा विभाग और सरकार की यही समझ है कि उर्दू के शब्द कठिन होते हैं, बच्चों के लिए परेशानी के सबब बनते हैं इसलिए पाठों को बदल दिया जाए। इस शैक्षिक और अकादमिक समझ पर हंसी नहीं आती बल्कि अफसोस ही किया जा सकता है।
अव्वल तो यह पहली बार नहीं हुआ है। बस भौगोलिक अंतर जरूर रहे हैं लेकिन इस किस्म के गैर शैक्षिक और अकादमिक फ़रमान का शिकार अन्य राज्यों मंे पाठ्यक्रमें हुई हैं। प्रकारांतर से शिक्षा, साहित्य, पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम एक नरम कड़ी हुआ करती हैं जिसे बड़ी ही आसानी से तोड़-मरोड़ सकते हैं और यह प्रक्रिया खूब आजमाई गई है। कभी किसी राज्य में गीता को बच्चों के बस्ते में ठूंसा जाता है तो कहीं रामायण और महाभारत की वजह से उर्दू साहित्य और रचनाओं को पाठ्यपुस्तकों से बाहर होना पड़ता है। क्या यह स्वस्थ शैक्षिक पहलकदमी मानी जाएगी? क्या साहित्य शिक्षण और शिक्षा का दर्शन है?
पाठ्यपुस्तकों के साथ हमेशा ही इस तरह की छेड़छाड़ होती रही हैं। जब भी सत्ता और सरकारें बदली हैं तब तब पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों मंे रद्दो बदल किए गए हैं। वैसे बदलाव ग़लत नहीं है लेकिन जब बदलाव वैचारिक पूर्वग्रह को पोषित और संप्रेषित करने के लिए किया जाता है तब तब शैक्षिक दर्शन की हत्या की जाती है। यह हत्या सन् 2000 में जब राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा बनी तब प्रेमचंद की कहानी को पाठ्यपुस्तकों से निकाल दिया गया और उसके स्थान पर मृदुला जी की कहानी ज्यों मेहंदी के रंग को शामिल किया गया। उस वक्त और आज भी शैक्षिक विमर्शों में यह बात बड़ी शिद्दत से होती है कि प्रेमचंद की कहानी के समानांतर क्या यह कहानी खड़ी होती है? किन कारणों से इस कहानी को स्थानांतरित किया गया? तत्कालीन एनसीएफ 2000 पर भगवाकरण का आरोप लगा था। तत्कालीन पाठ्यपुस्तकों को देखें तो यह बेबुनियाद नहीं जान पड़ता। पाठ्यचर्या में भी खास विचारधारा को पिरोने का काम इतिहास में खूब हुआ है।
दरअसल पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकों को समय समय पर वैचारिक संप्रेषण और संरक्षण के औजार के तौर पर इस्तमाल किया गया है इससे किसी को गुरेज नहीं हो सकता। वह पाठ्यपुस्तकें हो या पाठ्यचर्याएं इन शैक्षिक साधनों कि जरिए बच्चों के बस्तों मंे सेंधमारी होती रही हैं। यह गैर शैक्षिक एवं अकादमिक प्रवेश  न केवल भाषा की किताबों में बल्कि समाज विज्ञान, विज्ञान एवं इतिहास की किताबों मंे भी हुई हैं। राजस्थान के पाठ्यपुस्तकों से नेल्सन मंडेला, विलियम वर्डस्वर्थ, पाइथोगोरस आदि को निकाल बाहर किया जाएगा। वहीं अकबर के स्थान पर महाराण प्रताप को इतिहास मंे जगह दी जा रही है। उस तुर्रा यह कि राजस्थान शिक्षा मंत्री का कहना है कि एक युग में दो महान नहीं हो सकते। हद तो तब हो जाती है जब बिना किसी निरपेक्ष शैक्षिक विमर्श के धार्मिक-ग्रंथों, पाठों, विधानों को पाठ्यपुस्तकों में शामिल करने की कवायद की जाती है। यह किसी की आंखों से ओझल नहीं है कि मध्य प्रदेश, हरियाणा,राजस्थान जहां भाजपा की सरकार है या रही है वहां की पाठ्यपुस्तकों मंे कभी गीता को शामिल किए जाने को लेकर विवाद उठा है तो कभी सूर्यनमस्कार को अनिवार्य करने के पीछे थू थू हुई है। वास्तव में इस तरह की गैर शैक्षिक और अकादमिक छेड़छाड़ को कभी भी शिक्षाविद् एवं बौद्धिक समाज स्वीकार नहीं करेगा और न ही करना चाहिए।
बच्चों को क्या पढ़ाया जाए,कैसे पढ़ाया जाए, कितना पढ़ाया जाए एवं किस तरीके से पढ़ाया जाए यानी शैक्षिक विमर्शाें को ताख पर रख कर एक सूत्रीय कार्यक्रम वैचारिक प्रचार कैसे किया जाए चलाया जा रहा है। याद करें पिछले साल दिसंबर में मानव संसाधन मंत्रालय को शब्दों की सूची सौंपी गई थी जिसमें उर्दू के दो हजार से भी ज्यादा शब्द शामिल थे जैसे अख़बार, ख़बर, ग़लत, बाजार, कलम, दफ्तर आदि को तत्काल प्रभाव से हटाने की मांग की गई थी। प्रकारांतर से इस प्रवृत्ति पर सोचें तो पाएंगे कि यह भाषायी विविधता को धत्ता बताना नहीं तो और क्या है? इसी एजेंडा को आगे बढ़ाते हुए राजस्थान के शिक्षा विभाग की समिति उन तमाम रचनाओं और रचनाकारों को बेदख़ल कर रही है जिन्होंने उर्दू में लिखा या उर्दू भाषा से वास्ता रखते हैं। यदि ऐसा होता है तो वह दिन दूर नहीं है जब हम जायसी, रसख़ान, मीर तकी मीर, गालिब को तो नहीं ही पढ़ेंगे बच्चे रानी केतकी की कहानी भी नहीं पढ़ सकेंगे। इतना ही नहीं उर्दू के लेखकों की कहानियां, कविताएं बच्चों से दूर कर दी जाएंगी। जिन्ने लाहौर नी वेख़्या... वज़ाहत साहब भी पाठ्यपुस्तकों से बाहर कर दिए जाएंगे।
बहुभाषिकता और बहुभाषी समाज की परिकल्पना शायद अब पुरानी पड़ चुकी है। बहुभाषी आस्वाद देने से कतराते वर्ग को यह विचार करना चाहिए कि भारत में हिन्दी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं को अपना समृद्ध इतिहास और विकास यात्रा रही है। क्या हम ग़ालिब,मीर तकी मीर, फैज़, ख़ैयाम, मजरूह सुलतान पुरी,कैफ़ी आजमी,जावदे अख़्तर आदि के बगैर हिन्दी फिल्मी गीतों की मधुरता की कल्पना कर सकते हैं? क्या हम सहादत हसन मंटो, सफ़दर हाशमी, इस्मत चुगताई को निकाल बाहर कर साहित्य मंे एक फांक पैदा करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं? साहित्य में किसी भी भाषा को बाहर कर बहुभाषिकता के भाषायी दर्शन को नकारना ही तो है। कहीं न कहीं भाषा, इतिहास, विज्ञान अपने परिवेश से ही जीवन-तत्व पाया करती हैं यदि उन्हें स्थानीयता और एक रेखीय भाषा के औजार से बरता जाएगा तो यह एक बड़ी घातक शैक्षिक परिघटना है।


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