Thursday, November 5, 2015

भाषायी विस्थापन


कौशलेंद्र प्रपन्न
व्यक्ति के साथ भाषा भी विस्थापित होती है। व्यक्ति जीवन यापन के लिए या फिर बेहतर जिंदगी के लिए गांव,देहात,जेवार छोड़ कर शहरों, महानगरों की ओर पलायन करता है। पलायन कहें या विस्थापन लेकिन यह प्रक्रिया बड़े और व्यापक स्तर पर इतिहास में होता रहा है जो बतौर आज भी जारी है। अपनी अपनी हैसियत अवसर के अनुसार इस विस्थापन में हजारों हजार गांव,घर खाली हो चुके हैं। जो एक बार गांव से निकल गया वह दुबारा अपने गांव लौटने की लालसा रखते हुए भी नहीं लौट पाता। गांव वापसी की पीड़ा व्यक्ति को ताउम्र सालती रहती है। बुढ़ापे में गांव जरूर लौटेगा इस आशा में गांव में घर भी बनाता है। लेकिन वे घर उसके लौटने के इंतजार में ढहने लगते हैं, लेकिन वही नहीं लौटता।
एक बार पांव गांव से बाहर निकले नहीं कि दुबारा अपने गांव वापस आएंगे या नहीं यह तय नहीं है। जो लोग गांव से बाहर हो चुके हैं उनमें गंाव के प्रति एक कड़वाहट भी देखी जा सकती है। गांव का माहौल अब रहने लायक नहीं रहा। यहां बिजली,पानी, रोजगार के अवसर की कमी है। यहां कोई कैसे रह सकता है,आदि उलाहने भरी पंक्तियां सुनी जा सकती हैं। ज़रा उनसे कोई पूछे आप भी तो उसी माहौल में पढ़ लिख कर आज महानगर की चकाचैंध मंे बैठे हैं। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो यह कहते हैं कि गांव जा कर क्या करेंगे, वहां आखिर अब रखा ही क्या है? न मां-बापू रहे और न यार दोस्त, फिर वहां किसके लिए जाया जाए। यह सच है कि समय के अनुसार गांव, देहात, शहर महानगर सब जगह बदलाव साफ देखे जा सकते हैं। हाट बाजार,गली मुहल्ले सब के सब विकास के पथ पर सरपट दौड़ रहे हैं। जहां छोटी दुकानें हुआ करती थीं वहां चमचमाता शोरूम बन चुका है। नाई के उस्तरे, साबुन सब बदल कर हेयर स्पा,फेशियल के बोतलों में बंद हो चुके हैं।
व्यक्ति के विस्थापन व पलायन से ही भाषायी पलायन व विस्थापन भी गहरे जुड़ा हुआ है। इतिहास बताता है कि जब बिहार, उत्तर प्रदेश से गिरमिटिए विभिन्न देशों में गए तो उनके साथ उनकी भाषा भी गई। वे अकेले यात्रा पर नहीं निकले थे बल्कि उनके साथ उनकी भाषायी संस्कृति,समाज, परिवेश भी वहां वहां गया था। उनकी जबान ने वहां अपनी पहचान बनाई। यह भाषायी फैलाव था। यह भाषायी अस्मिता की वैश्विक पटल पर एक दस्तक थी। आज के संदर्भ में देखें तो अमरिका के जनगणना ब्यूरो की रिपोर्ट में बताया गया है कि  अमरिका में तकरीबन 6.5 लाख लोग हिन्दी बोलते हैं। दिलचस्प है कि न केवल हिन्दी बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ ही अन्य देशों की भाषाएं भी बोली जाती हैं। इसमें स्पेनिश,चीनी, फे्रंच,कोरियाई,अरबी रूसी आदि भाषाएं भी शामिल हैं। इन भाषाओं के बरतने वालों से अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि इन भाषाओं के लोग अपनी जमीन से विस्थापित हुए हैं। इनमें भाषाओं के विस्थापन से मायने यह है कि किन किन भाषायी परिवेश के लोग कहां कहां जा बसे हैं। यदि इस रिपोर्ट की रोशनी मंे जानना चाहें तो एक तस्वीर यह उभरती है जिसमें 3.7 लाख से कहीं अधिक अमरिकी गुजराती बोलते हैं। वहीं  2.5 लाख से ज्यादा लोग बंगाली, 2.5 लाख पंजाबी,73,000 मराठी, 1300 लोग असमी, 1700 लोग कश्मीरी बोलते हैं। यहां यह देखना रेाचक होगा कि किस प्रांत व भाषा-भाषी का पलायन अन्य देशों में हुआ। इस दृष्टि से जब देखते हैं तब हमंे 600 लोग बिहारी भाषा, 700 लोग राजस्थानी भाषा प्रयेाग करने वाले इस रिपोर्ट में दर्ज किए गए। तमिल, तेलगू,मलयाली बोलने वालांे की संख्या भी हजारों और लाखों में है।
भाषायी विस्थापन का अंदाज तो लगता ही है साथ ही भाषायी वर्चस्व एवं ताकत की झांकी भी मिलती है। किस भाषा को बरतने वाले कितने तदाद में हैं और किस पद पर बैठे हैं यह भी भाषायी विस्तार को खासा प्रभावित करता है। किसी भी भाषा के फैलाव को उस भाषा के इस्तमाल करने वालों के कंधों पर होता है। जैसे जैसे हम भाषा को अपनी पहचान का मामला बना लेते हैं तभी वह भाषा विस्तार पाती है। जब हम भाषायी पहचान को अपनी हीनता मानने लगते हैं तभी कोई भी भाषा हमारे आम फहम कही जिंदगी से कटती चली जाती है। यही वजह है कि भाषाएं हमारे परिवेश से सिमटती जा रही हैं। उदाहरण के लिए अमरिका में बिहारी और राजस्थानी बोलने वालों की संख्या अन्य भाषाओं की तुलना मंे बेहद कम है। नेपाली, उर्दू, अरबी आदि बोलने वालों की संख्या भी लाख के ज्यादा है। यह परिघटन दो तरह के संकेत करते हैं पहला-इन भाषााओं को बोलने वाले उस देश में ज्यादा संख्या में विस्थापित हो चुके हैं। दूसरा, जिनकी संख्या कम है वे एक कुंठाग्रस्त मनोदशा के शिकार हैं। उन्हें अपनी भाषा के इस्तमाल मंे संभव है संकोच व किसी तरह का दबाव महसूस करते हों। अपनी भाषा के इस्तमाल न करने के पीछे कई तरह के दबाव एवं मनोदशाएं हो सकती हैं। वह सामाजिक प्रतिष्ठा से लेकर, भाषायी पहचान एवं सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा हुआ मामला है।
व्यक्ति के विस्थापन के साथ भाषायी एवं उसकी सांस्कृतिक विस्थापन भी जुड़ा हुआ है। यही वजह है कि एक भाषा में कई भाषाओं की आवजाही साफ नजर आती हैं। हिन्दी में विभिन्न बोलियों, भाषाओं के शब्द सहज ही मिल जाएंगे। मसलन भोजपुरी, अवधी, उर्दू, अरबी,उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि। एक विमर्श भाषा में यह भी है कि शुद्धतावादी इस प्रवृत्ति को भाषा की दृष्टि से उचित नहीं मानते। उनकी नजर में यह भाषा को गंदला करना है। इस तर्क के आधार पर हिन्दी से उर्दू, फारसी,अरबी शब्दों को निकाल बाहर करने की आवाज समय समय पर सुनाई देती रही हैं। किन्तु भाषा को समृद्ध करने के लिए जरूरी है अन्यान्य भाषाओं के बीच संवाद स्थापित किया जाए और भाषायी आवाजाही को बढ़ावा दिया जाए।


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