हाँ , साल की पहली सुबह भाषा मुझसे कहने लगी ज़रा सोचो तो सही- तुम लोग मुझसे बात करने से डरा करते हो। भला क्योँ ? क्या मैं इतनी बुरी हूँ, या की मेरी सूरत बुरी है। अगर नहीं तो मुझसे बात करने में बेरुखी भला क्यों?
मैंने बोहोत दिमाग खपाया मगर समझ से बाहर थी भाषा की ये बातें। मगर जब गहरे सोच कर देखा तो अमिताभ जी की फिल्म शराबी के संवाद याद आने लगे। " आई वाक् इंग्लिश , आई इत इन्ग्ल्सिः , आई स्लीप इंग्लिश"
वाह !!! क्या बात कह दी अमीत जी ने कहा - कितनी गजब की बात है भाषा की साथ सोने , खाने , घुमने जैसे रिश्ते बनाने से भाषा तो हमारी हो ही जाती है साथ ही वो हमें समाज में मान , इज्ज़त , और पैसे भी दिलाती है। फिर मैंने सोचा इतनी मज़े की बात को खुद तक दबा कर रखना भाषा की तौहीन ही तो होगी। भाषा सब की सब भाषा की परिवार के हों जाएँ तो कितनी गज़ब की बात होगी। फिर भाषा दर दर हमें ठोकरे खाने नहीं देगी। 'सिंह इस किंग' फिल्म की इक गीत के बोल है - 'इक बारी हो इक बारी ....' हाँ बिलकुल सही समझे इक बरी अगर भाषा से गठजोड़ हुआ तो मान कर चलिए की आपके रिश्ते में तलाक तलाक तलाक के मौके नहीं आयेंगे। आप भाषा से रिश्ता तोड़ सकते हैं मगर भाषा बेवफा नहीं होती।
जब भाषा आप से वफ़ा कर रही है तो आप भाई ! काहे को बेवफाई करने पर उतारू हैं। खा मखा पंगा लेना ज़रूरी है क्या। यार बनी बनायीं, बसी बसाई गृहस्ती में क्योँ आग लगा रहे हैं। ज़रा आप भाई भाषा के संग रह कर देखें तो सही , अगर उसकी यारी बुरी लगे तो बेशक गलियाते , कोसते भाग जाएँ। फिर मैं नहीं कहूँगा की भाषा के साथ ज़िन्दगी बिताने की बात।
सच है , भाषा की दोस्ती अगर निभ जाये तो क्या ही कमाल की बात होती है , आपसे हर कोई बात करना चाहे। आप ज़हन में कहीं भी जाएँ आपके संग भाषा ससा ससा कस्तो ससा तपन कुंजर कस्तो ससा.... आपके मान में चार चाँद लगा देती है। तो फिर सोच का रहे हो भैया? भकुए काहे हैं जी ज़रा भाषा की यारी कुबूल तो कर के देखो क्या ही मज़ा है। माल की क्या बात करते हो भाई , ये तो आपको विदेश भी घुमती है। यानि शादी भारत में और भाषा की पीहर विदेश में आप हो आते हैं। अरे दुलहा राजा अब मान भी जायो , भाषा की संग उसकी बहने साथ में मिला करती हैं। यानि इक के साथ अन्य फ्री.... सौदा घाटे का बिलकुल नहीं है।
मणि सेल्स मैं हूँ आप यही सोच रहे हैं ? हहा हां , मैं हूँ भाषा का सेल्स मैं.... तो क्या इस साल इक भाषा के साथ अन्य भाषा को घर लाना न चाहेंगे? आये न सर जी, आपकी बात सही है वही भाषा लेना चाहते हैं जिस को बाद में आप बेच कर खरीद दाम से ज़यादा कमाना चाहते हैं। तो बस आपके लिए बिलकुल सही मौक़ा है हाथ से इस अवसर को न जाने दीं।
बस इसी उम्मीद के साथ आज की दूकान बढ़ता है। कल फिर आयूंगा गली गली , शहर शहर घूम कर भाषा बेचता हौं। हाँ मैं भाषा बेचता हौं। क्या आप खरीदोगे?
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
-
कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
-
प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
-
कौशलेंद्र प्रपन्न सदन में तकरीबन साठ से अस्सी जोड़ी आंखें टकटकी लगाए सुन रही थीं। सुन नहीं रही थी बल्कि रोए जा रही थी। रोने पर उन्हें शर...
No comments:
Post a Comment