Wednesday, January 13, 2010

साथ साझा चुल्हा कैसे जले

साथ साझा चुल्हा कैसे जले,
हमने तो मंदिर,
आँगन,
चूल्हा,
बर्तन,
सब अब तक दो फाक कर चुके।
नदियाँ,
नाले,
पोखर भी,
उस पार दी ही डाले,
झेलम,
चिनाब,
शिप्रा,
गंगा,
यमुना,
अपने पास रख लिया,
कुछ को हमने उसपार उलीचा,
सागर भी हमने सोचा दो फाक कर ही डालीं,
पर्वत खोदी,
माँ की आँचल फाड़ चुके हम,
अब क्या फाड़ें तुम हे बोलो,
कहते हो कश्मीर भी दे दो
बोलो खुद ही अपने वतन का संभल बन पाए जो,
कश्मीर दे दें,
यह तो भीख में दी नहीं जा सकती,
फिर तो माज़रा यहीं पर अटके,
पर बोलो गर कश्मीर तेरा हो ही जाये तो,
कब तलक,
कौम पर राज कर ही सकोगे...
साझा सब कुछ खतम हो चुका,
अब तो दर्द,
आसूं अपने हैं साझा,
बोलो इस को जी सकते हो,
तब तो जंग ख़त्म हो जाये,
लहू तम्हारे भी बह जायेंगे.....

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...