Tuesday, January 12, 2010

ग़ालिब तेरे शहर में जी नहीं लगता

ग़ालिब तेरे शहर में अब जी नहीं लगता,
कभी तेरे कूचा ये मुहबत में रौनक हुवा करती थी,
अब तो तेरे उन गलियों से खून, चीख आती है।
ग़ालिब चलो अब वहां आशियाँ बनायें जहाँ मिलती हों,
झेलम सतलुज या गोदावरी की आचल में हिलोद्ये मरती हो चेनाब,
फिर से चलो किसी के कोठे पर पतंग काटें मंझा लगा,
भाई ग़ालिब अब तो तेरा शहर हर रोज बस्ता और बर्बाद होता है।
ग़ालिब सुना है रब की घर में कोई बड़ा या की छोटा नहीं,
तो फिर चलो ग़ालिब खुदा से बात करें रोते के आसूं कैसे कोई पोचे।
लाहौर या की इस्लामाबाद शहर तेरा भी डरा डरा रहता है,
बम की गूंज वहां भी लहू पीती है, ग़ालिब कुछ करते हैं।
उन्हें अपने घर से निकाल देते हैं, फिर देखते हैं।
हम फिर खुली हवा में जी भर कर साँस लेंगे,
ग़ालिब मीर तकी मीर हों या कर्तुल यां हेडर,
सब ने पैगाम ये अमन की खातिर कलम थामी,
हम भी चलो कुछ येसा गीत लिख्यें जो साथ गुनगुना सक्यें।
अब तो ग़ालिब हद हो चूका कहाँ बर्लिन की दिवार भी गिर चुकी,
लेकिन हम हैं की अब तलक रूठे रूठे बैठे हैं
और कितना इंतज़ार करोगे की कोई आएगा हाथ में लेकर कश्मीर,
कश्मीर को यहीं रहने दो, हम वहां अमन की खेती करते हैं।
बच्चे गायें गीत प्यार की गूंज गूंगे को मीठे की स्वाद सा लगे,
बस भी करो मेरा तेरा हो गया पुराना, अब कुछ नया राग में अलाप्यें।
कुछ सुबह की नमाज़ की तरह या ब्रहम मुहर्त में गंगा स्नान की बाद शंकर को जल डालते,
अंजुरी में भर दें मुठी भर प्यार की रजकण ताकि हाथ से छुए जिसे भी वह मह मह हो जाये....

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...