Sunday, February 17, 2019

बोल दें जो मन है पता नहीं फिर मौका मिले न मिले


कौशलेंद्र प्रपन्न


अपनी पुस्तक भाषा, बच्चे और शिक्षा की प्रति सौंपते हुए 

बोलने में हम कितनी कंजूसी करते हैं। कई बार संकोचवश बोल नहीं पाते। सोचते ही रह जाते हैं कि बोलूं या नहीं। बोलने से कहीं कोई नाराज़ न हो जाएं। इसी अगर मगर के चक्कर में कई बार कहने से चूक जाते हैं। हमारे हाथ से कहने का अवसर निकल जाता है। निकला हुआ वक़्त शायद कहते हैं वापस नहीं आता। आता भी है तो अपनी नई चादर ओढ़े आया करता है। तब शायद बोलने का वो लाभ व असर न पड़े।
कहने वाले कहते हैं जो भी कहना है, करना है आज ही कर डालो। कल किसने देखा। लेकिन मनुष्य का स्वभाव भी तो है कि हम आज कल में कई अहम चीजें, एहसास से हाथ धो बैठते हैं। सोचा था उनसे मिलकर यह कहूंगा, वह कहूंगा आदि आदि। लेकिन जब सूचना मिली कि वो अस्पताल में हैं। अब बोल नहीं सकते। न ही सुन सकते हैं। ऐसे में कितना मन कचोटता है कि काश तब ही बोल दिया होता जो कहना चाहते थे।
मेरे दिल के बेहद करीब रहने वाले प्रो. कमलकांत बुद्धकर जी इन दिनों न बोल पाने की छटपटहाट से गुज़र रहे हैं। आज जब उनसे बात हुई तो कुछ भी समझ न सका। वो कुछ तो कहना चाहते थे। लेकिन समझ से परे था। वो जिस भाषा व ध्वनियों को प्रयोग कर रहे थे उससे मैं परिचित न था। जिन्होंने रेडियो, अख़बार में खूब लिखा और बोला आज उन्हें किस मनोदशा और पीड़ा से गुजरना पड़ रहा होगा इसका अनुमान भर लगा सकता हूं। ख़ासकर जिसके लिए बोलना और लिखना, पढ़ना और सुनना पेश रहा हो। जिसने पूरी जिंदगी पढ़ने-पढ़ाने का ही काम किया हो उसकी जबान चली जाए तो उसे कितना कष्ट होता होगा। गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में इन्होंने मुझे हिन्दी पढ़ाई थी। पहले दिन इन्होंने परिचय लेते हुए कहा ‘‘ कमाल की बात है कि नेपाली, गुजराती, क्रिओल, आदि बोलने वाले को एक महाराष्ट्रीयन हिन्दी पढ़ा रहा है’’ यह वाक्य आज भी कानों में कौंध जाते हैं। सन् 1991 में बुध्कर जी ने ज्वाईन ही की थी। कहने को हज़ारों शब्द, भाव मन में आते होंगे लेकिन वह कह नहीं पाता। इन्होंने जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तार आदि अख़बारों में बतौर विशेष संवाददाता के तौर पर दो दशकों तक फीचर, ख़बरें और मुख्य पृष्ठ पर लिखा वो आज लिख नहीं पाते। बोलना चाहें भी तो बोल नहीं सकते।
हम न जाने किस गुमान और संकोच में आज के बेहतरीन वक़्त को हाथ से जाने देते हैं। सेचते हैं कल बोल देंगे। लेकिन कल आता कहां है? 

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