Wednesday, February 6, 2019

वो चला गया पुरानी कोट पहन कर नए मकां की ओर


कौशलेंद्र प्रपन्न
वो साथ बैठ था पास ही। मगर वो वो नहीं था। जो था वो तो कब का छोड़ चुका था। साथ तो था मगर उसका मन साथ नहीं था। साथ थी तो उसकी यादें। यादों में पुरानी बातें और पीछे घटी घटनाएं। कॉपोरेट जगत में ऐसा ही होता है। होता कुछ ऐसे ही है गोया किसी को ख़बर नहीं लगती। किसी को भी, कभी भी एक पल में बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। और जिसे बाहर का रास्ता दिखाते हैं उसे मालूम होता है कि उसे किस तरह से जाना है। किसी को भी पता न चले और वो चला गया।
कॉपोरेट जगत में यह बहुत आम बात है। एच.आर जिसे बुलाता है उसे दो ही विकल्प देता है- पहला, या तो आप जॉब छोड़ दो या फिर हम आपको निकाल देंगे। सामान्यतौर पर लोग पहला वाला विकल्प चुनते हैं, मैं ही इस्तीफा देता हूं। यह एक इज्ज़त वाला रास्ता है। कम से कम लोगों को वास्तविकता का नहीं इल्म होगा।
लेकिन इंसान है इंसान है तो उसकी कुछ संवेदनाएं होंगी। लेकिन कॉपोरेट संवेदनाओं से नहीं चलती बल्कि यहां सिर्फ तर्क और तर्क काम करता है। विवेक और यथार्थ काम किया करता है। जिसे निकालना है उसे बहुत ही कठोर शब्दों में कह दिया जाता है कल से आपको आने की ज़रूरत नहीं। लेकिन जो कर्मी है वह इस शब्द के ध्वन्यार्थ को समझ नहीं पाता और अपने काम पर लौट आता है। इसका ख़मियाज़ा ज़लालत से पूरा करना पड़ता है। उससे अचानक लॉपटाप मांग लिया जाता है। मांगना नहीं बल्कि छीन लिया जाता है। तब कैसा महसूस होता होगा। इसका अनुमान ही लगा सकते हैं।
कहते हैं शब्दों के बीच की रिक्तता और अर्थों को समझ सकें तो वह समझदार हैं। भावनाएं कई बार हमें मजबूर कर देती हैं। कई बार हम भावनाओं में इस कदर बह जाते हैं कि हमें इस का एहसास तक नहीं होता कि क्या चल रहा है हमारी हवाओं में।
ज़्यादा कुछ नहीं कह सकता शायद कह न सकूं किन्तु विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास का शीर्षक हमने उधार ली। और कहा जा सकता है कि वो आया और पुरानी कोट पहनकर यूं चला गया कि अंत में औरों से अलविदा कहने का मौका भी न मयस्सर न हो सका।

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