Thursday, October 11, 2018

मानसिक स्वास्थ्य भी हो हमारी चिंता


कौशलेंद्र प्रपन्न

हम अपने आस-पास नज़र डालें तो ऐसे लोग सहज ही मिल जाएंगे जो कुछ सामान्य से हट कर बरताव करते नज़र आएंगे। आदतन हम उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया करते हैं। स्थानीय बोलचाल में उन्हें पागल घोषित करते देर नहीं लगाते। जबकि हम एक गंभीर बीमारी की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। जो व्यक्ति बीमार है उसे तो नहीं मालूम लेकिन नागर समाज को उसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। लेकिन हम अपनी अपनी जिं़दगी में इस कदर व्यस्त हैं कि अपना अपना, मेरा मेरा ही के चक्कर में हम और के ग़म भूल जाते हैं। जबकि हमारी शिक्षा बड़ी ही शिद्दत से मानती है कि हमें एक ऐेसे नागर समाज का निर्माण करना है जहां मानसिक, आत्मिक, शारीरिक, संवेदनात्मक आदि स्तर पर समुचित विकास हो। लेकिन अफ्सोसनाक बात यह है कि हमें विश्व भर में हजारों नहीं बल्कि लाखों लोग हैं जो मानसिक तनाव और दुश्चिंता में जी रहे हैं। अंग्रेजी में कहें तो यह मानसिक स्ट्रेस के खाने में आता है। आज हमारी लाइफ इस कदर तनावपूर्ण हो है कि हम कहीं का गुस्सा कहीं और निकाला करते हैं। इतना ही नहीं जिस दौर में जी रहे हैं यह सोशल मीडिया और ख़बर रफ्तार के समय से गुजर रहे हैं। ऐसे में हमारी मनोदशा और अंतरदुनिया सोशल मीडिया से ख़ास प्रभावित होता है। यदि किसी ने सोशल मीडिया पर बेरूख़ी बरती तो हमारा पूरा दिन और पूरी रात तनाव में कट जाती है। सोशल मीडिया से हमारी जिं़दगी संचालित होने लगे तो यह चिंता की बात है। तमाम रिपोर्ट यह हक़ीकत हमारी आंखों में अंगुली डाल कर दिखाना चाहती हैं कि आज हम किस रफ्तार में भाग रहे हैं। और इस भागम-भाग हम अपनी नींद और चैन खो रहे हैं।
आज सच्चाई यह है कि हर पांच में से एक व्यक्ति मानसिकतौर पर बीमार है। बीमार से मतलब अस्वस्थ माना जाएगा। वहीं 46 फीसदी लोग किसी न किसी रूप तनाव से गुजर रहे हैं। वह तनाव दफ्तर से लेकर निजी जिं़दगी क पेचोखम हो सकते हैं। जब व्यक्ति इतने तनाव में होंगे तो अमूमन सुनने में आता है कि मेरे सिर में हमेशा दर्द रहता है। ऐसे लोगों की संख्या तकरीबन 27 फीसदी है। हम जितने तनाव में होते हैं उनमें हम कहीं न कहीं भीड़ में रह कर भी अकेलापन महसूसा करते हैं। हम घर में रह कर भी तन्हा महसूसा करते हैं। ऐसे में व्यक्ति अकेला होता चला जाता है। कई बार तनाव और डिप्रेशन में आदमी ग़लत कदम उठा लेता है। डिप्रेशन में जीने वालों की संख्या 42.5 फीसदी है। हम रात में बिस्तर पर चले जाते हैं। लेकिन रात भर करवटें बदलते रहते हैं। नींद रात भी क्यों नहीं आती। क्योंकि हम उच्च रक्तचाप और तनाव में जीते हैं। इसलिए रात भर सो नहीं पाते। सुबह उठने के बाद भी आंखों में नींद भरी रहती है।
अनुमान लगाना ज़रा भी कठिन नहीं है कि जब हमें रात भर नींद नहीं आती। घर परिवार में भी अकेला महसूसा करते हैं तब हम कहीं न कहीं मानसिक रूप से टूटन अनुभव किया करते हैं। ऐसे लोगों के साथ शायद यार दोस्त भी वक्त गुजारने के कतराते हैं। उन्हें लगता है कि वो तो अपनी ही पुरानी बातें, घटनाओं से पकाने लगेगा। लेकिन हमें नहीं पता कि हम एक ऐसे व्यक्ति के साथ खड़े होकर संबल देने की बजाए उसे अकेला छोड़ रहे हैं। वह किसी भी स्तर पर जा सकता है। शायद आत्महत्या की ओर मुंड़ जाए। ऐसे लोगों की संख्या भारत में कम से कम 45 से 50 फीसदी है। जो कहीं न कहीं जीवन में अकेला हो जाते हैं और जीवन को नकारात्मक नज़र से देखने और लेने लगते हैं।
हमारे पास विभिन्न तरह के विभिन्न रोगों के लिए सुपर स्टार अस्पाल हैं। जहां जाने के बाद विभिन्न सुविधाओं से लैस कमरे, डॉक्टर के विजिट, खान-पान उपलब्ध हैं। एक हजार से शुरू होकर दिन 10,000 तक के कमरे आपकी जेब के मुताबिक उपलब्घ हैं। लेकिन यदि हम मानसिक अस्वस्थ लोगों के लिए अस्पताल तलाश करने निकलें तो बेहद कम मिलेंगे। दिल्ली में सरकारी अस्पतालों जिसमें मानसिक रोगियों के लिए उपलब्ध हैं उनमें वीमहांस और इबहास हैं। इन दो अस्पतालों के छोड़ दें तो प्राइवेट अस्पताल में भी चिकित्सा उपलब्ध हैं लेकिन उसके खर्चे ज़्यादा हैं।
वैश्विक स्तर पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि विभिन्न कारणों से व्यक्ति एक्यूट एंजाइटी, दुश्चिंता और अवसाद का शिकार है। तनाव तो है ही साथ ही अकेलापन भी एक बड़ी वज़ह है कि लोग देखने मे ंतो स्वस्थ लगता हैं लेकिन अंदर टूटे हुए और बिखरे हुए होते हैं। ऐसे लोगों को अकेला छोड़ना कहीं भी किसी भी सूरत में मानवीय नहीं माना जाएगा। गौरतलब हो कि 2007-8 में जब वैश्विक मंदी को दौर आया था तब वैश्विक स्तर पर लोग डिप्रेशन के शिकार हुए थे। लोगों की जॉब रातां रात चली गई थी। शादी के लिए तैयार लड़की शादी के करने से इंकार कर दिया था। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि डेंटिस्ट पास दांत दर्द के रोगियों की संख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई थी। हालांकि प्रमाणिकतौर पर आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन मानसिकतौर पर टूटे हुए और तनावग्रस्त लोगों की संख्या ऐसे अस्पतालों में बढ़ी थी। याद हो कि तब की मीडिया ने अगस्त सितंबर 2008 के बाद वैश्विक मंदी में जॉब गवां चुके लोगों की ख़बरें भी छपना बंद कर चुकी थी। ऐसे में इस प्रकार के आंकड़े निकलाना ज़रा मुश्किल काम रहा कि कितने प्रतिशत लोग मानसिक अस्थिरता की वजह से मनोचिकित्सकों की मदद ली।



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