Friday, October 26, 2018

यात्रा में बातचीत



कौशलेंद्र प्रपन्न
गाहे ब गाहे हम रोज दिन न जाने कितने ही लोगों से मिला करते हैं। उनमें से कुछ लोग याद रह जाते हैं और कुछ भूल या भुला दिए जाते हैं। याद रह जाने वाले लोग शायद अपनी बातचीत की शैली, कंटेंट या फिर कहन के तरीके की वजह हमारी स्मृतियों के अभिन्न हिस्सा हो जाते हैं। भूला वे दिए जाते हैं जिनकी बातों में हमें दिलचस्पी नहीं थी। या फिर हम सुनना या मिलना ही नहीं चाहते थे। क्या करें मिल गए तो सुन लिए, सामने पड़ ही गए तो हाथ मिला ली। इस तरह की घटनाओं से हमारी ज़िंदगी भरी हुई है। कई बार तो सामने बैठा व्यक्ति हमें इतना ऊबाता है कि उससे छुटकारा कैसे मिले बस इस उपक्रम में हां में हां या हुंकारी भरा करते हैं। किसी तरह अपनी बात खत्म करे और पीछा छुटे। लेकिन आपको भी याद होगा कि ऐसे कई सारे लोग हमारे आस-पास हुआ करते हैं जिन्हें सुनने के लिए हम लालायित भी रहते हैं। वहीं ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जिन्हें देखना, सुनना कत्तई पसंद नहीं करते। ऐसे ही एक ऑटो चालक से पिछले दिनों मुलाकात हुई। बात नोटबंदी और अगले साल होने वाले चुनावों से हुई। लेकिन कब हमारी बातचीत इतिहास में गोते लगाने लगी यह मालूम ही नहीं चला। हालांकि यात्रा की लंबाई कम थी। हमें जल्द ही उतरना भी था लेकिन बातों में इतनी रोचकता और जीवंतता थी कि यात्रा खत्म होने के बाद भी हम रेड लाइट पर खड़े होकर बात को अंजाम तक पहुंचाने की बेचैनी भरे हुए थे। इस यात्रा में मेरे साथ डॉ रमेश तिवारी और अभिषेक कुमार भी थे। उन सज्जन ने जैसे ही अपनी बात चुनाव और महंगाई से आगे ले जाकर भारतीय इतिहास का पल्ला पकड़ा अब बातों में और भी रोचकता घुलने लगी। वो सज्जन मोहम्मद इज़रिश थे। जिनसे छोटी किन्तु सारगर्भित बातचीत ने हमें लुभा लिया।
उन्होंने इतिहास की इतनी बारीक तथ्यों को इतनी सहजता और रोचकता के साथ साझा की कि लगा ही नहीं कि ये ऑटो चालक होंगे। महसूसा हुआ कि हम किसी इतिहासवेत्ता से बात कर रहे हैं। उन्होंने मुगल काल से लेकर खिलजी सल्तनत और औरंगजेब से लेकर हुमायूं तक यात्रा कराई। उन्होंने अपनी समझ और विश्लेषण की तथ्याता इस रूप में भी स्थापित करते चल रहे थे कि बीच बीच में तारीख़ी हक़ीकत और और तथ्यों को पीरों रहे थे। 1580 से लेकर अब तकी भारतीय ऐतिहासिक यात्रा महज पंद्रह मिनट में करा दी। उन्होंने बातों ही बातों में बताया कि किस प्रकार अविभाजित भारत की सीमा कभी काबूल, अफगानिस्तान, इस्ताम्बूल आदि से मिले हुए थे। कब कब मुगलों, अफ्गानों और अन्य आक्रमणकारियों से भारत की संप्रभूता और अखंड़ता को चोट पहुंचाई। तब की तात्कालिक राजनीतिक परिघटनाओं को भी अपनी बातचीत का हिस्सा बना रहे थे। हमने बीच बीच में यह जानने की कोशिश की कि उनकी तालीम कहां तक की है। उन्हें इन तमाम ऐतिहासिक तथ्यों और कहानियों की जानकारी कैसे मिली आदि। मगर उन्होंने हमारे इन सवालों को अनदेखा कर दिया। गोया उन्होंने हमारी बातों को तवज्जो ही नहीं दी।
दरअसल हमारी यात्राएं अब बंद गाड़ियों में मकदूद हो गई हैं। जब हम सर्वाजनिक परिवहनों को इस्तमाल किया करते थे तब कुछ ज़्यादा ही लोगों से हमारी मुलाकातें हुआ करती थीं। जैसे जैसे हमारी निजी वाहनों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई वैसे वैसे हमारी सार्वजनिक वहनों से नाता टूटता सा चला गया। हम आम बसों, साझा वाहनों में चलना, यात्रा करना लगभग बंद कर चुके हैं। जिनके पास निजी वाहन वहन करने की क्षमता है उनलोगों की जिं़दगी से सार्वजनिक परिवहन अपनी पहचान खो चुके हैं। यही कारण है कि सार्वजनिक परिवहनों में यात्रा करने वालों की संख्या पर असर पड़ा है। वहीं दूसरी ओर सड़कों पर निजी वाहनों में बाढ़ सी आ गई है। इन लंबी और बड़ी गाड़ियों में यात्रा करने वाले साफ-सफ्फाक कपड़े पहने, महंगी घड़ी और गाड़ी वाले तो आम सार्वजनिक वाहनों में सफ़र करने वालों को क्या ही प्राणी समझा करते हैं। हालांकि यह एक पूर्वग्रह भी हो। लेकिन बंद गाड़ी में घर से दफ्तर और दफ्तर से घर या फिर घर से मॉल और मॉल से घर के दरमियान आपकी कितने लोगों से मुलाकात संभव है? आप कितनों के संपर्क में आते हैं आदि जानना भी बेहद मौजू है। जब हम सार्वजनिक परिवहनों में यात्रा करते हैं, आप जगहों पर घूमा करते हैं तब हमें कई किस्म के लोग टकराते हैं। उन्हीं में से किसी से प्यार, गुस्सा, लगाव के रिश्ते भी पलने लगते हैं। स्कूल या कॉलेज में क्योंकर प्यार हो जाया करता है क्यांकि बच्चे खाना-पीना, घूमना फिरना सब साथ किया करते हैं। लेकिन जैसे हम निजी खोल में खुद को समेटने लगते हैं वैसे ही हमारे रिश्तों की सीमा में तय होने लगती है।
कभी ट्रेन मे ंतो कभी प्लेन में यात्रा करते करते रिश्ते बन जाया करते हैं। ज़रूरत महज इस बात की है कि क्या हम शिद्दत से और सलीके से बातचीत का पहल कर रहे हैं। या फिर अपने अपने खोल और बात न करने की ज़िंद में पास ही बैठे बेगाने से हुआ करते हैं। अब तो इयरफोन की लीड कान में डूंसे अपनी ही गीतों की दुनिया में मग्न रहा करते हैं। लेकिन इन तमाम परिस्थितियों को धत्ता बताते हुए कुछ लोग अभी बचे हैं जिन्हें बातें करना खूब भाता है। ये अलग बात है कि कई बार बातूनी लोगों से हमें परेशानी भी होती है। हम रिजर्ब रहने के अभ्यस्त हो चुके हैं। हमें बातें करना उतना नहीं भाता और न ही यह चाहते हैं कि कोई हमारी निजी जिंदगी में दखल दे।
ट्रेन, बस, प्लेन के पायलट आदि से कभी बात करने की कोशिश की कि आप कैसे हैं? कैसा महसूस होता है जब आप किसी ट्रेन को साठ और बहत्तर घंटे चलाया करते हैं। आपकी कैबीन में कोई तीसरा नहीं होता क्या आपको किसी से बात करने, मिलनी की कमी नहीं अखरती? महसूस तो होता होगा? घर की याद तो आती होगी आदि आदि। शायद हम ड्राइवर, पायलट आदि से बात करना उचित नहीं समझते। नहीं मानते कि उन्हें भी कभी शुक्रिया कहा जाए। कहा जाए कि कितनी चुस्ती और तत्परता से आपने हमें हमारी मंजिल तक की यात्रा सुरक्षित और आनंदपूर्ण तरीके से पूरी की। मुझे याद हम जब पिछली यात्रा में लेह-लद्दाख जा रहा था प्लेन का पायलट जिस खूबी और साहित्यिक शैली में यात्रा में पड़ने वाले जगहों, पहाड़ों, नदियों के बारे में उद्घोषण कर रहे थे उनकी भाषा और वर्णन को सुनकर मन में एक हूंक सी उठी कि क्यों न उनके मिलकर उनकी भाषा और अंदाज ए बयां की तारीफ़ की जाए। जैसे ही लेह उतरा सबसे पहले भागकर पायलट के पास गया और उनकी भाषा और शैली की तारीफ की। उनका मन गदगद हो गया। 

2 comments:

डॉ. रमेश तिवारी said...

सर नमस्कार! 1580 नहीं, 1526 कहा था इदरीश भाई ने। बाकी अभी पढ़ रहा हूं। पूरा कर लूं, फिर लिखता हूं।

डॉ. रमेश तिवारी said...

बहुत बढ़िया लिखा है आपने के.पी. सर ! हमारे समय के सच को हमारे सामने कुछ यूं रख दिया है आपने मानो लेखन आईने के रूप में हमें हमारी खूबियों-खामियों से परिचित करा रहा है। जो चीज जिसके पास कम होती है वह उसके लिए बहुत कीमती होती है। आज हम सबके पास संवाद के अवसर बहुत कम हैं, इसलिए आज के संदर्भ में ऐसे अवसर बहुत कीमती हैं। आज ऐसे अवसरों की सतत तलाश और बेहतर संवाद की संभावनाएं बनाने और संजोने की अत्यंत आवश्यकता है। सफर और संवाद का यह क्रम जारी रहना चाहिए। राह में बहुत से मोती मिलेंगे। अतीत-वर्तमान और भावी जीवन के ऐसे असंख्य यादगार सहयात्रियों के लिए मेरी अशेष शुभकामनाएं.....

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...