Wednesday, October 24, 2018

पेड़ थे और रहेंगे मानें या न मानें





कौशलेंद्र प्रपन्न
सदियों सदियों तलक ये पेड़ यूं ही खड़े रहते हैं। बस अंतर इतना ही पड़ता है कि हम इनके बीच से कहीं दूर की यात्रा पर निकल जाते हैं। कहते हैं वहां से हम जैसे गए थे वैसे ही नहीं लौटते। बल्कि हमारा लौटना कुछ अलग रूप में होता है।
ये नदी, पहाड़, पेड़ जैसे हम इन्हें छोड़ जाते हैं वे वैसे ही खड़े या पड़े रहते हैं। नदी वैसी ही बहती रहती है। बस वो कई बार रास्ते बदल लिया करती है। पहाड़ थोड़े झुक जाते हैं या फिर खिसक जाते हैं। या फिर नदी को सिमटने पर हम मजबूर कर देते हैं। पहाड़ों को काट-छांट कर अपनी जेब में कैद करने लायक बना दिया करते हैं।
नदी विभाजन से पहले भी थी। और अब भी बतौर झेलम, चिनाब बह रही हैं। उनके पानी में कोई अंतर नहीं देख सकते। खेत खलिहान और पहाड़ भी पूरी शिद्दत से खड़े मिलेंगे। बस हमीं हैं कि इनके बीच से निकल लिया करते हैं।
जब तक इस जमीं पर रहते हैं इन्हें खोदते, खंघालते उलीचते रहते हैं। और जब जाते हैं तब इन्हें किसी बांध से बांध दिया करते हैं। कहीं बांध बनाकर तो कहीं इन पर विवाद जन्मा कर हम तो चले जाते हैं लेकिन ये नदियां, ये पहाड़ और ये पेड़ वहीं रहा करते हैं।
कितना अच्छा होता कि हम नदी, पहाड़, पेड़ को संरक्षित कर पाते। इन्हें सुरक्षित रखकर अपने आने वाले बच्चों को दे पाते। गांव का पुराना पेड़ अभी भी वहीं खड़ा है। कहता होगा कि देखों तुम्हारे बाप दादे सब के सब हमारे ही सामने बड़े हुए और अब इस गांव में कोई चराग जलाने वाला भी नहीं बचा। 

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