Thursday, October 25, 2018

चिमनी से निकलता धुआं और डेहरी का चेहरा



कौशलेंद्र प्रपन्न
अब जब याद करता हूं तो मेरे जेहन में ऊंची चिमनी से निकलता लगातार धुआं मुझे एकबारगी डेहरी के उस चेहरे से दुबारा रू ब रू कराता है, बल्कि कहना चाहिए उस सुखद पलों में ले जाता है जब अपने छत से तीन चिमनियों को एक साथ गलबहियां करते सीधे खड़े देखा करता था। देखा करता था कैसे ये तीनों चिमनियां अपने बलंद इरादों और इतिहास पर गर्व करते हुए खड़े थे। इन्हीं चिमनियों से शायद डेहरी की भी पहचान हुआ करती थी। जब आप दिल्ली या बनारस से डेहरी की ओर ट्रेन से आया करते थे तब पहले पहल नहर पार करते ही ये चिमनियां ही तन कर हमारा स्वागत किया करती थीं। साथ रोशनी से जगमाती सुबह और रातें बताती थीं कि शहर जगा है, हम बेशक सो रहे हैं। पूरी रात शहर सोया करता था। मगर डालमियानगर जगा रहता था। सिफ्ट में काम करने वाले अफ्सर, मजदूर लगातार मेन गेट से आवाजाही किया करते थे। और इस तरह से डालमियानगर सोते हुए भी जगा रहता था। उत्पादन में तल्लीन डालमियानगर तब कागज़, डालडा, सिमेंट आदि उगला करता था। वैशाली नाम से बच्चों के लिए स्कूली अभ्यास पुस्तिका भी छपा करती थी। जिसमें दाई ओर अशोक स्तम्भ छपा होता था। उन अभ्यास पुस्तकों का इस्तमाल हमने भी किया। हालांकि तब एहसास न था कि इतना व्यापक और मजबूत साम्राज्य काल के गाल में समा जाएगा। सच पूछिए तो शायद डालमियानगर से ही डेहरी की भी पहचान जुड़ी थी। जैसे गर्भनाल से बच्चा जुड़ा होता है। उसी डालमियानगर में स्कूली, कॉलेज, बेहतरीन पार्क, सड़के ऐसी कि देखकर मन प्रसन्न हो जाए। क्वाटर को देखकर महसूसा करता था कि इन घरों में राजा या रानी रहा करती होंगी।
वक़्त की मार से न आप बच पाएं हैं और न कि हम। हम सभी को अपनी गलतियों को ख़ामियाज़ा आज कल भुगतने ही पड़े हैं। सो मैनेजमेंट से लेकर प्रशासन और सरकार की बेरूख़ी कहें या लचर प्रबंधन की मार की धीरे धीरे डालमियानगर की चमक और रौनक धीमी पड़ती चली गई। एक के बाद एक प्लान्ट बंद होते चले गए। करोड़ों की जायदाद, मानव श्रम को न जाने किस डायन की नज़र लगी कि डालमियानगर एक बार अस्पताल की बिस्तर पर गया तो ठीक होने की बजाए उसकी हालत और दिन प्रति दिन ख़राब होती चली गई जैसे मरीज कुछ कुछ ठीक होता सा महसूस होता है तो उसे डाक्टर और तीमारदार घर लेकर चले जाते हैं। लेकिन फिर फिर मरीज की हालत ख़राब होती है और अंत में उसके सेहद मे गिरावट दर्ज़ की जाने लगती है ठीक उसी तर्ज़ पर डालमियानगर की हालत भी धीमी ही सही किन्तु मृत्यु की ओर बढ़ने से लाख कोशिशों के बावजूद बचाना पाना मुश्किल होता चला गया। तब जब की बात कर रहा हूं मैं शायद चौथी या पांचवीं कक्षा में रहा हूंगा वर्ष 1985-86 रहा होगा जब डालमियानगर में हड़ताल और कुछ प्लांटों के बंद होने की ख़बरें बालमन में सुनाई देने लगी।
डेहरी ऑन सोन से रिश्ता यूं तो बचपन से रहा बतौर वहीं की पैदाईश के साथ ही साथ सोणभद्र से असीम जुड़ाव महसूस करता हूं। इसकी दो वजहें हैं पहली की पिताजी के कंधे पर सवार होकर और कई बार हाथ पकड़कर सोन में सालों भर जाया और नहाया करता था। दूसरी वज़ह मेरी प्यारी दादी का देहांत और दाहसंस्कार उसी सोन के किनारे हुआ। जब तक याद आता तो सोन पर बने गेमन पुल से चिल्लाया करता ससुरी दादी सुनती नहीं है। सो गई। आदि आदि। आज जब भी सोन और डेहरी की चर्चा चलती है तो मेरे ख़्याल ये सबसे ज़्याद ताज़ा और टटकी यादें रेलवे स्टेशन और सोन की है। जय हिन्द सिनेमा घर में शायद तब एक या दो ही फिल्में देखीं होंगे। क्योंकि दसवीं करने के बाद डेहरी के विस्थापित होना पड़ा। हालांकि विस्थापन इतिहास में दर्ज़ मानवीय विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में दर्ज़ है। इसलिए डेहरी हाई स्कूल और स्कूल के ठीक सामने एक पुराना ढहने की कगार पर खड़ा एक महल, भूतबंगला आदि आदि नामों से ख़्यात एक किला हुआ करता था। उसके बारे में जो बड़ों और सहपाठियों से कहानियां सुनी थीं वो यही थीं कि यहां किले में बैठा राजा अंदर ही अंदर सुरंग से सासाराम निकल जाता था। यह कितना सच था और कितना झूठ यह तो तब की उम्र में ज़्यादा मायने नहीं रखता था। और वैसे भी यह मसला इतिहास और भूगर्भशास्त्रियों के हिस्से में ज़्यादा आती हैं। कहने को तो कहने वाले यह भी कहते थे कि कोइ इस ओर से उस ओर नहीं पार कर सका है। कहानियां थीं से कहानियों में पात्र भी रहे ही होंगे।
डेहरी हाई स्कूल जाने के रास्ते में डेहरी पड़ाव ख्ुला और गोद में मंच लिए लेटा मिला करता था। इसी मैदान में कई तरह से मेले, जुलुस, सर्कस आदि लगा करते थे। खिचड़ी पर इसी ख्ुले मैदान में पूरे दस या पंद्रह दिन के लिए मजमा मेला और सब कुछ लगा करता था। इन्हीं सड़कों से गुजरते हुए स्कूल जाना और छोटी नहर पार कर मिट्टी के टीले से फिसला आज भी स्मृतियों दर्ज़ हैं। सोन और नहर के बीच में बसा हमारा डेहरी हाई स्कूल काफी पुराना और नामी स्कूल हुआ करता था। डेहरे के अमूमन सभी युवा इन्हीं स्कूलों डेहरी, डिलियां और डालमियानगर स्कूलों में प्रारम्भिक तालीम लेकर आज दुनिया के विभिन्न शहरों में बसे गए। डेहरी वहीं की वहीं बसी है। पची है और विस्तार हासिल कर रही है। झारखंड़ी मंदिर और मिट्टी के टीले के ठीक बीचों बीच एक तालाब किस्म का स्थान हुआ करता था। वहां कुछ पुरानी स्टीमर, पुराने नाव आदि जंग खा रहे थे। कहां से आए? कौन लेकर आया यह तो नहीं मालूम लेकिन उन स्टीमरों पर स्टेयरिंग घुमाना, खेलना और कपड़े फाड़ना अब तक याद है।
अस्सी के दशक के डेहरी को देखें और 2000 के बाद के डेहरी को देखें तो एक बड़ा बदलाव नज़र आएगा। अस्सी के दशक में ही आंखें देखी बात है कि डेहरी पड़ाव के ठीक सामने अप्सरा सिनेमा हॉल खुला, एक स्टेशन रोड़ कर नया सिनेमा हॉल खुला। जो पुराना सिनेमा हॉल था वो जय हिन्द और डालमियानगर में स्टेशन से उतरते ही डि लाइट हुआ करता था। जहां तक याद कर पा रहा हूं तो उस हॉल में बंद होने से पहले नाचे मयूरी फिल्म लगी थी उसके बाद वो सिनेमा हॉल में इतिहास का हिस्सा होने से बच न सका। याद आता है कि गरमी की शाम और रात, या फिर सरदियों की दुपहरी में या फिर शाम में डी लाइट सिनेमा हॉल शो शुरू होने से पहले और बाद में गाने बजाया करता था। इतना ही नहीं स्टेशन के लगभग पास रहने की वजह से कई बार दुपहरी में तो कई बार शांत रात में स्टेशन से होने वाले उद्घोष साफ सुनाई दिया करते थे। अब सियापदह की घोषणा हो रही है, तो कभी बंबे मेल की। बरवाडीह की घोषणा आदि। सन् 1984-85 के आस पर डेहरी ऑन सोन स्टेशन पर पैसिंजर रूका करती थीं। लेकिन डालमियानगर कॉलेज की प्रधानाचार्य शायद नाम सही याद कर पा रहा हूं तो शाही थीं जिन्हें दिल्ली आने जाने में दिक्कतें होती थीं सो उन्होंने दिल्ली सिफारिश कीं कि स्टेशन पर डिलक्स रूका करे। तब इस ट्रेन का नाम यही हुआ करता था। जेनरल टिकट दिल्ली के लिए शायद अस्सी रुपए हुआ करता था। शाही मैडम की सिफारिफ रंग लाई और डेहरी में डिलक्स रूकने लगी। हमें बड़ा अच्छा और गर्व होता था कि सासाराम में यह नहीं रूका करती है।
बाज़ार के नाम पर तब तीन की मुख्य हुआ करते थे-डालमियानगर, डेहरी बाजार और स्टेशन बाजार। हालांकि अब भी ये तीनों बाजार हैं लेकिन बाजार की प्रकृति में तब्दीली आ चुकी है। कला निकेतन, ग्लासिना, मातृभंड़ार, विद्यार्थी पुस्तक भंड़ार, पीयूषी आदि ऐसी दुकानें थीं जो डेहरी बाजार और थाना चौक की शान हुआ करती थीं। अब शायद इन दुकानों के मालिक वृद्ध हो गए। इन मालिकों के बच्चों को इनकी दुकानों में कोई ख़ास दिलचस्पी जाती रही। वे बच्चे दिल्ली, कलकत्ता, बंबे, मद्रास और विदेश जाने लगे। वैश्विक बाजार के हिस्सा बने और पुरानी दुकाने अब मरने की कगार पर हैं। सुना तो यह भी है कि डेहरी में भी एक मॉल खुल चुका है। बदलाव की शुरुआत हो चुकी है। पुरानी दुकाने खुद ब खुद खत्म होती जाएंगी। नए नए मॉल और दुकानें अस्तित्व में आएंगी। ग्लासिना के विनोद मारोदिया, कमला स्टोर कुछ ऐसी दुकानें थीं जो दुकान से ज़्यादा रिश्तें कायम करने में विश्वास रखा करती थीं। यही वजह है आज कि मातृभंड़ार, ग्लासिना, कला निकेतन अपने नाम से जाने जाते हैं। 

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