Thursday, October 4, 2018

झेलम की कहानी



कौशलेंद्र प्रपन्न

‘‘शाम पांच बजे पूणे से चली थी। भोपाल, आगरा, मथुरा फरीदाबाद पार करतीह हुई दिल्ली पुहंची हूं रात के पौने नव बज रहे हैं। थक गई हूं। थोड़ा सुस्ता लूं फिर रात भर और दौड़ना है।’’
झेलम बुदबुदा रही थी। शाम और रात भर दौड़ती रही ट्रेन रात होते होते थक सी गई थी। उसके पांवों से माने पहिए से आग की चिनगारियां निकल रही थीं। जब स्टेशन पर चीं चीं... कर रूकी। सबने देखा और और देख कर नजरअंदाज कर दिया। पूछोगे नहीं उस ट्रेन का नाम क्या है? जैसे हमारे नाम होते हैं उसी तरह हर ट्रेन के नाम होते हैं। उनके नंबर भी होते हैं। जैसे स्कूल में तुम्हें रोल नंबर मिलते हैं। उसी तरह ट्रेनों को भी रोल नबंर मिले होते हैं। उस ट्रेन का नाम था झेलम। उसे हमने 11077 नबंर दिया है। जब झेलम दिल्ली स्टेशन पर रूकी तो प्लेटफॉम ने उससे क्या बात किया होगा?
‘‘बहन थकती नहीं हो?’’
 ‘‘इतनी लंबी यात्रा करती हो। न जाने कितने ही स्टेशनों से गुजरती हुई चला करती हो।’’
प्लेटफॉम झेलम से बातें करना चाहता था। रास्ते की थकन दूर हो इसके लिए उसने झेलम को टोका। रात भर की यात्रा के बाद ट्रेन में पानी भी तो खत्म हो गया था। सो दिल्ली में झेलम को पानी मिला। थोड़ी देर सांसें लेने के बाद झेलम ने कहा ‘‘तुम तो एक ही जगह पर पड़े रहते हो, तुम्हें क्या मालूम रास्ते कितने लंबे होते हैं।’’ ‘‘थोड़ी देर सुस्ताने तो दो’’
तब तक प्लेंटफॉम पर सफाई वाले, पानी वाले, चिप्स वाले सब आ गए। ट्रेन चुपचुपा खड़ी थी उस दौरान प्लेटफॉम चुपचाप ट्रेन को निहार रहा था। अब ट्रेन ने चुटकी ली और कहने लगी-
‘‘मेरी यात्रा सुनोगे तो होश ही उड़ जाएंगे। बहुत दूर से आती हूं।’’ कहां कहां से गुजरती हूं सुन लोगों तो पता चलेगा तुम भी मेरे साथ घूमना चाहो’’
‘‘अब तुम भी सुबह सुबह मजे न लिया करो झेलम’’
‘‘मैं कहां जा पाउंगा?’’
‘‘मेरी किस्मत उतनी भी अच्छी कहां है जो देश-देश, जगह जगह घूमा करूं। मैं तो यहीं के यही रहता हूं। चुपचाप। देखता भर रहता हूं। कभी तुम आती हो, कभी डिबरू गढ़ आती है तो कभी शताब्दी। कहते हैं शताब्दी ज़रा शोख़ और नजाकत वाली है। उसमें चढने वाले भी मुझे तो अलग ही किस्म के लोग लगते हैं। उनके पास टीस टप्पर के बक्से, झोरा, बोरी भी नहीं होते’’
झेलम सुनते सुनते बीच में बोल पड़ी, ‘‘तुम्हें बस समय चाहिए। अपनी ही कहानी सुनाने की बेचैनी होती है।’’
 ‘‘तो मैं क्या कह रही थी कि मेरी यात्रा बड़ी ही लंबी है। कई राज्यों से गुजरती हुई यहां आती हूं। सूंघों सूंघों तो सही। तुम्हें आगरे का पेठा, मथुरा का पेड़ा, पूणे और मुंबई का आलू बटाटा, भोपाल का पोहा जलेबी की खूशबू आएगी।’’
‘‘अब तुम मुझे चिढ़ावो मत। यह सब बता कर। तुम अपने साथ ला नहीं सकती थी?’’
‘‘चलो यह तो बताओं तुम कहां से चलती हो और कहां तलक जाती हो? ज़रा हम भी तो सुनें।’’
‘‘ अभी मेरी बात पूरी ही कहां हुई। ज़रा सुनो तो। जब मैं करूक्षेत्र, अंबाला और पटियाला पहुंचती हूं तो वहां के वाह! छांछ और लस्सी के भरे परे ग्लास और पराठे!!!’’ मुंह में पानी आ जाएंगे। जब तुम्हें पता चलेगा कि पराठे पर उछलता मक्खन...’’
‘‘बस भी करो झेलम तुम तो जीना ना दोगी। अगर ला नहीं सकती तो ऐसे लजीज खानों के बारे में सुनाकर बेचैन मत किया करो।’’ थोड़ मचलते हुए प्लेटफॉम ने कहा
‘‘कहने वाले कहते हैं और मैंने भी सुना है कि तुम 51 इक्यावन घंटे चला करती हो।’’
‘‘हां हां सच है यह तो। लेकिन सच यह भी है कि कई बार जब देर होती हूं तो वह साठ घंटे भी हो जाते हैं।’’
‘‘कितनी थक जाती होगी है न?’’ प्लेटफॉम ने संजीदगी के साथ कहा।
‘‘अच्छा तो ये बताओ बहन इन घंटों में तुम तो मीलों का सफ़र कर लेती होगी?’’
‘‘हां मीलों कह लो या किलोमीटर। यही कोई 2,176 किलोमीटर की यात्रा करती हूं।’’
अब मुंह बाए प्लेटफॉम झेलम को देख रहा था। प्लेटफॉम को मजाक करने का मन किया और कहने लगा-
‘‘ उफ!!! कितनी थक गई जाती हो। और तुम्हारे पांव दबा दूं।’’ आओ आओ शर्माओ मत।’’
झेलम को यह बात थोड़ी गुदगुदाने वाली लगी।
कहने लगी-
‘‘चलो रहने दो। देखने वाले क्या कहेंगे?’’
‘‘कुछ लोक लाज है या नहीं?’’
‘‘चलो प्लेटफॉम तुम से तो बातें होती रहेंगी। अब मैं तरोताज़ा हो गई हूं। आगे की यात्रा के लिए गार्ड साहब ने हरी झंड़ी भी दिखा दी है। देखते नहीं हो?’’
‘‘लोग मेरा इंतज़ार कुरूक्षेत्र में, अंबाला में और पटियाला से लेकर लुधियाना में कर रहे होंगे। तुम्हारीं बातों में फंस गई तो लेट हो जाउंगी। फिर वो लोग कहेंगे आज फिर देर हो गई।’’
‘‘अपना ख़्याल रखना झेलम....मममम’’
‘‘अच्छे से जाना और कल फिर मिलेंगे तुम्हारी ही बहन मिलेगी मुझे 11078’’
‘‘उसे मेरा हलो बोलना....’’
और झेलम प्लेटफॉम से सरकने लगी।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...