Sunday, October 28, 2018

दशकों बाद भी मिलो गोया कल ही मिले थे


कौशलेंद्र प्रपन्न
दशक का फासला कितना लंबा होता है। है न? कभी मिलिए ऐसे व्यक्ति से जिनसे आपकी मुलाकात तकरीबन बीस या तीस साल बाद हुई हो। संभव है आप या कि वो पहचान न पाएं। कई बार आप पुराने डोर को टटोलते हैं पुरानी तस्वीरों से आज के चेहरे, आज की आवाज से मिलान करते हैं। हम कई बार आवाज़ की डोर पकड़कर पहचान को दस्तक देते हैं और सही व्यक्ति को पहचान लेते हैं। कोई कितना भी वयोवृद्ध हो जाए या फिर उम्र की सीढ़ियां चढ़ लें हमारी कुछ आदतें, आवाज़ आदि पहाचन के सूत्र में पीरो देते हैं। और पुरानी यादों की परतें खुलने लगती हैं।
ऐसा ही पिछले दिनों हुआ। एक अपने ही घर के पास रहने वाली दीदी से मुलाकात हो गई। यही कोई तीन दशक बाद। बुनियादी बुनावट चेहरे की वही थी। बस तीस साल का सफ़र चेहरे पर दिखाई दे रहा था। आवाज और आदतें कुछ कुछ वैसी ही थीं। जैसी तब हुआ करती थीं। वैसे ही रफ्तार में बोलना, तेज बोलना और हमेशा हड़बड़ी में रहना। कभी किसी चाची को छेड़ना तो कभी कभी किसी को। वह आदत अभी तीस की मार से कमजोर नहीं पड़ी थी। बस कुछ बदला था तो तीन बच्चे उनके हिस्से आए और पति समय पूर्व चले गए। हालांकि यह कोई छोटी बात और घटना नहीं थी।
इसी तरह से ऐसी ही साथ पढ़ने वाली दोस्त से फोन पर बात हुई। तब हम एम ए में साथ हुआ करते थे। यह भी दो दशक पुरानी बात हो गई। कहीं किसी कॉमन दोस्त से उसका नंबर मिला और मिला दिया फोन। न आवाज़ पहचाना और न नाम ही याद कर पाई। हो भी कैसे कोई आवाज़ का हमारे पास डेटाबैंक तो है नहीं कि हम तुरंत वर्तमान की आवाज़ और चेहरे को मैच कर लें। सो वही हुआ। मैं फोन पर बताता रहा मैं वो हूं। वो हूं। आदि आदि। उधर आवाज़ वैसी स्थर और अपरिचित। फिर मैंने कहा कोई बात नहीं। बीस पच्चीस सालों में आवाज़ और चेहरे पर उम्र की मार साफ दिखाई देने लगती है। किन्तु फिर भी चाहें तो पुराने डोर को मांझा देकर मुलाकात को तरोताज़ा कर सकते हैं।
अब कई बार महसूस हुआ करता है कि आज जिससे हमारे रंज़िश है। किसी से कटते हैं। कोई कुछ ज़्यादा ही पसंद आती हैं। क्या आवाज़ और क्या हंसी है आदि आदि। देखना यह है कि ब बीस या पच्चीस साल बाद मुलाकात होगी यदि हुई तो क्या हम पहचान पाएंगे? क्या हम पहचान कर मुंह फेर लेंगे? तब तक तो रंज़िशें भी पिघल जाएंगी। चेहरे और लुनाई भी जाती रहेगी।
मेरे पिताजी की एक पंक्ति साझा कर रहा हूं बेहद मौजू है-
अभी तो मुझे खींचते हैं नज़ारे
बड़े प्यार से चांद देता बुलावा,
ये अल्साती कलियां कदम धाम लेंती,
बिछुड़ जाएंगी जब ये तब सोच लूंगा।


No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...