Thursday, July 5, 2018

आनंदपूर्ण पढ़ना-पढ़ाना पर किसके कंधे पर



कौशलेंद्र प्रपन्न
तकरीबन पांच व छह दशक पहले प्रो. यशपाल ने ‘शिक्षा बिना बोझ के’ वकालत की थी। उनका तर्क था कि शिक्षा-शिक्षण, पढ़ना-पढ़ाना आदि कोई बोझ न हो। सीखना-सिखाना प्रक्रिया सहज और आनंदपूर्ण प्रक्रिया हो। बजाए कि स्कूल और स्कूली परिवेश बच्चों को आकर्षित करने के उन्हें डराएं आदि। बड़ी ही शिद्दत से प्रो. यशपाल ने अपनी इन सिफारिशों को सरकार को सौंपी थी। सरकार तो सरकार होती है। उसकी अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। कन्हें कब और कितना उछालना है, किसे तवज्जो देनी है आदि सरकार और सत्ता तय किया करती है। क्यर हम इसे सरकार और सरकारी सत्ता कह इच्छा शक्ति की कमी न मानें कि छह दशक के बाद भी हम ज्वायफुल लर्निंग की ही बात कर रहे हैं। सिर्फ नाम बदले हैं। रैपर बदले हैं अंदर का कंटेंट, कंसेप्ट तकरीबन समान है। यदि दिल्ली सरकार हैप्पी करिकुलम की बात करती है। साथ ही कई महीनों की मेहनत से कंटेंट तैयार करवाया गया। अब उसे स्कूलों में लागू का जाएगा। कहा तो यह भी जा रहा है कि कक्षा में स्कूल की शुरुआत में तीस मिनट बच्चे ध्यान से किया करेंगे। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन गैर हिन्दू संप्रदाय के बच्चों को भी हमें विमर्श के केंद्र में रखने होंगे। क्योंकि स्कूल किसी एक ख़ास संप्रदाय व मान्यताओं का परिसर नहीं है बल्कि यहां एक ऐसा समाज बसता और आकार लेता है जो भविष्य में व्यापक समाज का दिशा देते हैं।
दूसरा उदाहरण मानव संसाधन मंत्रायल के निर्णय को लिया जाए। हाल ही में एमएचआरडी मंत्री ने घोषणा की कि हमारे बच्चों का करिकुलम बहुत भारी है। उस भार को कम करना होगा। कम किया जाना चाहिए। यह पहली सरकार है जो शिक्षा के इस भार को पहचान कर कम करने की इच्छा शक्ति रखती है। अब उन्हें कौन समझाए कि कभी कभी शिक्षा और मंत्रालय के निर्णयों, दस्तावेज़ों को पढ़ लेने में कोई हर्ज़ नहीं है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका कि प्रो. यशपाल से लेकर जस्टिस जे एस वर्मा की कमिटि ने भी शिक्षा की बेहतरी और ज्वायफुल लर्निंग के लिए पहले सिफारिशें दे चुकी हैं। यह अलग बात है कि हमने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया। उस पर तर्रा यह कहना कि पहली बार उनकी सरकार इस ओर ध्यान दे रही है।। यह अफ्सोसनाक बात नहीं तो और क्या नाम दे सकते हैं।

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