Tuesday, July 17, 2018

सामान बटोरू स्वभाव और सेल



कौशलेंद्र प्रपन्न
कभी सेल का मौसम साल में एक या दो बार आया करता था। जनवरी, फरवरी या फिर पंद्रह अगस्त के आस-पास। या फिर राखी, दिवाली या फिर होली के आस-पास। अब तो सेल का कोई मौसम न रहा। जब मन किया बाजार ने तय किया तभी सेल का मौसम तारी हो जाती है। कभी कोई कंपनी तो कभी दूसरी कंपनी में हाड़ लगती है और सेल का मौसम शहर, महानगरों पर हावि हो जाते हैं। कभी महासेल तो कभी महामेघा सेल। सिर्फ नाम में अंतर देखे जा सकते हैं। प्रवृत्ति एक सी होती है। कैसे कस्टमर की जेब से पैसे निकलवाए जाएं। गोया कस्टमर तैयार बैठे होते हैं कि आईए और मेरी जेब काटें। जब कटने वाला तैयार तो काटने वाला क्योंकर सस्त हो। जो सामान सामान्य दिनों में हज़ार की होती है उसपर तीन से चार हज़ार का प्राईस टैग लगाकर पचास$पचीस$ बीस फीसदी के सेल के टैग लगाकर वही सामान पंद्रह सौ में पिचका दिया जाता है। ख़रीदने वाला खुश कि तीन चार हजार का सामान सेल में सस्ते में मिल गया। वह एक नहीं दो नही बल्कि तीन चार पैंटें, शर्ट खरीद लेता है। बिना इसको जांचे कि उसे शर्ट व पैंट की ज़रूरत है भी या नहीं। बस इस तर्क पर खरीद लेता है सेल में मिल रहा है खरीद लो कभी तो काम आएगी।
पूरी तरह से हमें याद होगा कि कभी वक़्त था जब शादी ब्याह या फिर तीज त्योहारों पर नए नए कपड़े दिलाए जाते थे। जिन्हें बहुत जतन से रखते, धोते और सूखा कर अगली बार पहने के लिए रख दिया करते थे। माम-मामी, बुआ के घर जाना होता तो जैसे खरीदी वैसे ही पहनी हम नए कपड़े पहन कर जाते और आकर वैसे ही टीन या स्टील के बक्शे में धर दिया करते थे। तब महसूस होता था कि नए कपड़ों की इज्जत क्या होती है। वे कपड़े फिर समय के साथ फटे भी किया करते थे। मुहल्ले वाले, यार दोस्त मजाक भी उड़ाया करते थे अब तो नई कमीज़ खरीद ले भाई। देख नहीं रहा है कंधे पर शर्ट झांक रही है। मगर नई कमीज़ अगली होली या दिवाली में ही मिला करती थी। वो भी कई कई बार कपड़े खरीदे जाते और दर्ज़ी के पास नाप देकर हर दिन पूछने जाना कि सील गई क्या? टंगी हुई कमीज़ों और पैंटों में अपनी कमीज़ देखने का इंतज़ार हुआ करता था।
ईदगाह का हामीद याद आता है। पूरे तीस दिन के रोज़े के बाद गांव में हलचल है। किसी के पाजामे में नाडा नहीं है, कोई नई बुशर्ट पहने हुए है। तो कोई अपने जूते को चमकाने में लगा है। वहीं कोई अपने जूते में तेल डाल कर गिला कर रहा है। यही तो वर्णन प्रेमचंद अपनी कहानी ईदगाह में करते हैं। तब लोगों को नए कपड़ोंख् जूतों, चप्पलों का इंतजार होता थ। किसी के पास भी एक या दो से ज़्यादा जूते या अंगरक्खा नहीं होता था। जब फट जाती थी तब नई खरीदी जाती थी।
अब तो सेल महासेल के मौसम में किसी के पास इतना भी वक़्त नहीं है कि एक बार घर में अपनी आलमारी को खोल कर गिनती कर लें कि कितनी पैंटें, शर्ट, टी शर्ट हैं जो पिछले साल भी पहनने की बारी नहीं आई थी। वे तमाम कपड़े अपनी बारी के इंतजार में सिमटे जा रहे हैं। कभी तो उनके भी भाग्य बिहुरेंगे। कभी तो उन्हें भी पहना जाएगा। मगर नई नई शर्ट, पैंट और आलमारी में ठूंस दी जाती हैं। वही हाल जूते शैंडिलों का है। एक नहीं बल्कि कम से कम पांच छह जूते शैंडिल तो काम बात है। एक चमड़े के, दौड़ने जिसे वॉक करने के हल्के जूते, बिना फीते वाले, फीते वाले भी जूते एक दूसरे पर चढ़े रहते हैं। लेकिन क्योंकि किसी ख़ास ब्रांड के जूते सेल में तीन या चार हजार में मिल रहे हैं तो बिना ज़रूरत के उसे खरीद कर शू रेक में अडसा देते हैं।
जब कभी मौका मिले तो कभी अपनी आलमारियों की सफाई कीजिए मालूम चलेगा कि जिन्हें भी छांटते हैं कि इसे तो अब नहीं पहनता किसी और को दे दें। तभी सामान बटोरू प्रवृत्ति सवार हो जाती है। और उसका घर से बाहर निकलना ठल जाता है। और इस तरह से सामानों की लाइन लंबी होती जाती है। आख़िर एक आलमारी से काम क्यों नहीं चल सकता? क्या पहले घरों में शू रेक हुआ करते थे? शायद ही किसी किसी घर में। लेकिन जब से आठ दस जोडत्रे जूते चप्पल होंगे तो उसे सलीके से रखना भी तो होगा।
काश हम अपनी पुराने, जिन्हें अब नहीं पहनते। बल्कि शरीर पहनने नहीं देता। कभी बड़े शौक से मन पसंद पैंट या शर्ट खरीदी थी। तब उसे बचा कर रख दिया करते थे। अब शरीर वैसे छरहरा रहा नही ंतो वे कपड़े हमारे काम के नहीं रहे। लेकिन किसी और के तो काम आ सकते हैं। बहुत कम ऐसे घर होंगे जिनके यहां ऐसे कपड़ों, जूतों, चप्पलों की भीड़ होगी जिन्हें हम चाहें तो जरूरतमंद लोगों के तन ढक सकते हैं।
सामानों का अति संग्रह कही न कहीं संसाधनों का ग़लत इस्तमाल भी तो है। क्योंकि चीजें सेल में मिल रही हैं इसतर्क पर घरों को सामानों से भर दिया जाए। क्या यह बिना सोचे कि इस चीज की ज़रूरत हमें है या नहीं? बस सेल का लाभ उठाते हुए घरों को कबाड़ घर बना दिया जाए। घर का घर रहने देना अपने आप में कठिन है। लेकिन घर में चलने, उठने-बैठने, की जगह तभी रखी जा सकती है जब अनावश्यक सामानों से घर को न भर दें।

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