Friday, June 29, 2018

हिन्दी मातृभाषी पैंतालीस फीसदी फिर हिन्दी बेगानी




कौशलेंद्र प्रपन्न

हिन्दी को बोलने-बतियाने वालों की संख्या फीसदी में बात की जाए तो पैंतालीस 45 है। कुल जनसंख्या का 45 फीसदी जनता हिन्दी को अपनी मातृभाषा के रूप में बरतती है। बाकी बची भाषाएं, बोलियां भी प्रचलन में हैं। जो खड़ी हिन्दी 45 फीसदी के आगे कमतर सी महसूस करती हैं। गै़र हिन्दी भाषी समाज की बात की जाए तो उन्हें लगता है कि खड़ी हिन्दी उनकी बघेली, भोजपुरी, हरियाणवी, राजस्थानी, गढ़वाली को निगल जाएगी। ऐसा डर आख़िर उन्हें क्यों लगता है? शायद इसलिए क्योंकि हिन्दी कई बार अन्य भारतीय भाषाओं को शुद्धता के तर्क पर स्वीकार नहीं कर पाती। शुद्ध हिन्दी के पैरोकारां को यह कत्तई स्वीकार नहीं कि हिन्दी में गै़र हिन्दी भाषा के शब्द, शैली शामिल हो। उन्हें यह डर रहता है कि इससे शुद्ध खड़ी हिन्दी ख़राब हो जाएगी। जबकि बहुत पहले बहुभाषा और हिन्दी को बरतने वालों ने कहा भी कि हिन्दी और उर्दू गंगा-जमुनी संस्कृति की साझा विरासत की पहचान है। यदि ऐसा है तो हिन्दी को अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों को दूरी बनाकर चलने का क्या औचित्य है? साझा संस्कृति में हिन्दी भी कहीं न कहीं बनती, सजती और संवरती रही है। हिन्दी भाषा की सबसे बड़ी ताक़त ही यही रही है कि इसके अपने दामन में उर्दू, संस्कृत, फारसी, भोजपुरी, ब्रज, अवधी आदि भाषाओं को उदारता के साथ स्वीकार किया है। यदि इतिहास में झांक कर देंखें तो पाएंगे कि प्रसिद्ध कथासम्राट प्रेमचंद शुरू में हिन्दी में नहीं लिखा करते थे। वो सोज़े वतन पर पाबंदी लगी और प्रेमचंद हिन्दी में लिखना शुरू करते हैं। हिन्दल्वी, हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग गांधी से लेकर ऋषि दयानंद तक ने की है। यही कारण है कि हिन्दी समय के अनुसार समृद्ध होती गई है।
हिन्दी को बोलने-बरतने वालों की संख्या आज की तारीख़ में लाखों और करोड़ों में हैं। वह देशज दहलीज़ को लांघ कर वैश्विक स्तर पर लोग मिलेंगे जो हिन्दी बोलते-समझते हैं। क्यो वो दुबई हो, बाली हो, थाईलैंड हो, श्रीलंका,मॉरिशस हो इन तमाम जगहों पर हिन्दी भाषा-भाषी लोग सहजता से मिलेंगे। जिन्हीं हिन्दी से रागात्मक संबंध है। उनके लिए हिन्दी मां से कहीं ज़्यादा बढ़कर है। वे जब भी हिन्दी में कहीं उलझते हैं तब वे भारत की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देखते हैं और अपेक्षा करते हैं कि उन्हें हिन्दी भाषाई मुश्किल दौर से निकलने में भारत के भाषा-भाषी मदद करेंगे। लेकिन यहां हालत यह है कि हिन्दी को या तो बाज़ार में बैठाने के लिए हम आमादा हैं या फिर शुद्ध शाकाहारी किस्म की कोई वस्तु बनाने पर तुले हुए हैं। ऐसे में हानि किसी और की नहीं होती बल्कि हिन्दी का ही नुकसान हम कर रहे होते हैं। हमें आपसी राय और सुझावों के ज़रिए हिन्दी की आंतरिक द्वंद्वों को निपटा कर वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य बनाने के प्रयास करने होंगे। हालांकि कहने वाले कह सकते हैं जनाब हमने कब कसर छोड़ी है। हर साल अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन करते हो हैं। कभी दिल्ली कभी मॉरिशस, कभी लंदन आदि। लेकिन इस हक़ीकत से भी हम मुंह नहीं फेर सकते कि इन सम्मेलनों में होता क्या है? क्या उन सम्मेलनों में शामिल लोगों की सच में इच्छा होती है कि हिन्दी बेहतर बनें? क्या उनका अपना निजी एजेंड़ा नहीं होता कि नई जगह घूम आएं। कुछ निजी रिश्ते बुन आएं ताकि उस देश में दुबारा हिन्दी के कंधे पर सवार होकर टहलने का मौका मिले। इन सम्मेलनों में कुछ रटे रटाए, स्टीरियो टाइप के विषय रखे जाते हैं जिसपर पर्चां की प्रस्तुती होती है। फिर कविता, कहानी, व्यंग्य का दौर चलता है। कविता सुन-सुना कर वाह वाह की अनुगूंज के साथ अगले सम्मेलन की तारीख़ तय हो जाती है। जिनसे इस बार नहीं मिल सके उनके अगले मेले में मुलाकात का वायदा कर आते हैं। हिन्दी वहीं की वहीं खड़ी रह जाती है।

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