Tuesday, July 24, 2018

आंसू के मोल


कौशलेंद्र प्रपन्न
कहते हैं इंसान जब इस जमीन पर आता है तब उसे विभिन्न किस्म की विपरीत परिस्थितियों से सामना होता है और उसकी आंख से आंसू निकल आते हैं। शायद जो बच्चा रोता नहीं उसे जबरन रुलाया जाता है। यह भी सुनने में ज़रा अजीब सा लगता है कि यदि आप रोते नहीं तो पीट कर रुलाया जाता है। जब बड़े हो जाते हैं तब भी गाहे बगाहे रोते रहते हैं। कभी परिस्थितियों पर,कभी हालात पर, कभी रिश्तों पर तो कभी अपने काम और जीवन पर रोना आता है। रोते ही रहते हैं। और शिकायत भी करते रहते हैं। रोना और जीना। जीना और शिकायत करना दोनों ही चीजें साथ साथ चला करती हैं। जो रोता नहीं उसे जबरन रुलाने का प्रयास किया जाता है। आपने देखा ही होगा। यदि फलां का पति, बच्चा, पत्नी गुज़र जाती है। और फलां या फल्नीं रोती नहीं या रेता नहीं तो लोग चिंता करने लगते हैं। रुलाओ उसे। रो नहीं रही है। रुलाते तो इसीलिए हैं कि रोने से मन हल्का हो जाएगा। रोने से मन की गुत्थी थोड़ी ढिली होगी। जमा हुआ बर्फ थोड़ी पिघलेगा। तर्क तो यही दिए जाते हैं। रोने से मनोविज्ञान का भी गहरा रिश्ता रहा है। मनोविज्ञान व मनोचिकित्सा शास्त्र मानता है कि रोने से हमारी मनोजगत् की हलचलें व ठहराव कम होता है। मानसिक तनाव कम होते हैं। नस नाड़ियां सहज होती हैं। आदि। यह एकबारगी ग़लत भी नहीं है। तमाम साहित्य- कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि में ऐसे पात्र होते हैं जिन्हें देख,पढ़, सुनकर पाठक सहज ही अपनी घटनाओं से जुड़ जाता है और रुलाई स्वभाविक ही आ जाती है।
साहित्य में ख़ास कर ऐसी रचनाएं लेखकों ने यह सोच कर नहीं कीं कि हमें पाठकों को रुला ही देना है। बल्कि उन्होंने तो समाज के सहज और सामान्य गतिविधियों व घटनाओं को अपनी रचना में पुनर्सृजन करने की कोशिश की। उन्होंने यह प्रयास किया कि समाज में जो हो रहा है वह अप्रिय है। उसके प्रति कम से कम लेखक सामाजिक को संवेदनशील बनाए। उन परिस्थितियों के प्रति नागर सामज को चौकन्ना करे और जिम्मेदारियों का एहसास कराए। इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए भी कई रचनाएं चाहे वो कहानी, कविता व उपन्यास ही क्यों न हो समय समय पर रची गई हैं। निर्मला, गोदान, पिंज़र, हज़ार चौरासी की मां, जिन्ने लाहौर नहीं वेख्या ते जन्माई नइ, साकेत, अंतिम अरण्य, बच्चे काम पर जा रहे हैं, खो दो आदि ऐसी रचनाएं हैं जिन्हें पढ़ते व देखत हुए हमारे आंखें नम हो जाती हैं। गोया हम उसी कालखंड़ में यात्रा करने लगते हैं।
रोना अपने आप में न तो शर्म की बात है और न आंसू आ जाना कोई अप्रिय और अनहोनी सी घटना ही। क्योंकि यदि इंसान है तो सहज ही रोना, हंसना, क्रोधादि स्वभावगत प्रक्रियाएं हैं। लेकिन हमारा सामाजिकरण ही ऐसा होता है कि हम बचपन से ही रोने को ख़राब हो और एक ख़ास वर्ग क अांगन में डाल देते हैं। वो रोएं तो उनकी तो यही आदत है। वे तो रोती ही रहती हैं आदि। मगर हम रो दे ंतो आसमान कहीं फटने लगता है। कहीं कोई जमीन दरकने लगती है। सुनाया जाता है कि लड़की की तरह रो रहे हो। कमाल का तर्क है रोना उनके पाले में। हंसना लड़कों के हिस्से आया। प्रसिद्ध संपादक, लेखक,कवि अज्ञेय जी ने शेखर एक जीवनी में लिखा है कि रोना एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे मनुष्य का अंतरजगत् कुछ और साफ और हल्का हो जाता है। दूसरें शब्दों में कहें तो रोना, रुदन, रुद्रादि भाव मानवीय स्वभाव के प्रमुख अंग हैं। इनके न तो अलग हुआ जा सकता है और न ही जीया जा सकता है।

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